बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

माँ की यादों संग कुछ चीजें,
हाँ, याद मुझे आ जाती हैं !
इन चीजों के याद आने से,
माँ, याद मुझे आ जाती है !!



पिसती मिर्ची के भाटे से
गूंधते, गेहूं के आटे से
गारे का चुल्हा जलने से
गुड़ के हांड़ी में गलने से
वो रई से छाछ बिलोने से
हाथ के बने खिलोने से

सर पर चारे के भारे से
उस घर के गोबर गारे से

दाजी के धूलते कुर्ते से
कच्चे बैंगन के भुर्ते से
गेहनू से कंकड़ चुनने से
खटल्या गुदड़ी बुनने से
मांजती कांसी की थाली से
उस खुरपी,खेत,कुदाली से
हम बच्चों की बीमारी से
बस्ती की बची उधारी से



इन चीजों के याद आने से
माँ , याद मुझे आ जाती है !
माँ की यादों संग कुछ चीजें
हाँ , याद मुझे आ जाती है !!
महज़ अफ़वाह है अपनी दुश्मनी और लोगों के कहने से
हर एक बज़्म में , हम दोनों रक़ीब समझे जाते हैं.
बात सिर्फ इतनी सी सच है जिसे यहाँ कोई नहीं कहता
कि कभी हम भी थे आज आप जिसके क़रीब समझे जाते हैं.

हाँ यह हक़ीक़त है, कि, मेरी जान एक दिन उससे वाबस्ता थी
मगर सच तो यह भी है कि यह वाबस्तगी के वादे झूठे थे.
जिसे तुम टूट कर चाहते हो आज अपने तन मन से,
उसी की चाहत में हम भी कभी तन मन से टूटे थे।


नहीं अफ़सोस नहीं कोई रंज मुझे एक उसको खोने का,
अगर कुछ है तो बस इतनी सी मेरे दिल को अज़ीयत है.
कि जिसने सर पर मेरी चादर को न रखा था एक पल,
वही चेहरा, वही सर आज क्यों तुम्हारी मिल्कियत है.


दुश्मनी, तुमसे क्यों, जब कि तुम तो मानूस तक भी नहीं मुझसे,
यह रिश्ता दुश्मनी का तो अपने ही दोस्तों ने उछाला था.
जिन आँखों को पाकर आज तुम्हारी हयात रौशन है,
इन्हीं चिराग़ों से एक दिन अपनी भी ज़िन्दगी में उजाला था.


इसलिए दुश्मन समझ या दोस्त बस इतनी सी गुजारिश है,
कि जो आज तुझ पर फ़िदा है उसे मैंने भी क्या खूब रखा था.
तू भी उन आँखों को हर एक ग़म से दूर ही रखना,
हर एक तकलीफ़ से कभी मैंने जिन्हें महफूज रखा था.
यहाँ चुप रहना भी उतना ही निरर्थक लगता है
जितना चुप नहीं रहना
और कुछ कहना
उन चेहरों के सामने अपराध लगता है
जिनके पास हमारी आवाज़ के बदले में हमें लौटाने लायक,
अब कुछ भी नहीं बचा है
तो हमें सोचना पड़ेगा कि,
यह जो जैसा संसार हमने रचा है


उसमें चेहरे की अव्यक्त सुन्दरता पढ़ने के लिए
उस पर तेजाब उँडेलने का व्याकरण कहाँ और क्यों जरूरी है
और,भाडे़ के हत्यारों के उन्मादित आक्रोश
और आपकी निर्दोषता के बीच कितनी कम दूरी है


वे हत्यारे,
शालीनता के जूते पहनकर,
इस शहर के शांत वातावरण की पीठ पर से गुजरते हैं
इन्हीं हादसों से मेरी यादों के अलाव जलते हैं
और उस की रौशनी में मुझे अपना ही शहर पराया लगने लगता है
तब अपने से ही उकता कर
यह सोया हुआ वातावरण जगता है

और मैं चीखता हूँ
तुम सुनो,
लो तुम्हें बख्सता हूँ
मैं अपने अनुभव का आकाश
तुम इसमें से इस तथ्य को चुनो
कि एक ऐसे समय में जब,
जितनी कम संभावनाएं
किसी अनहोनी दुर्घटना से आपके बचने की है
क्या उतनी ही कम,
आपके या मेरे द्वारा कविता रचने की है

इसीलिए इस अनगढ़े समय में
आप अगर,
जीवित और जागृत भाषा के हाथों कुछ रच सकते हैं
तो मुझे सांत्वना मिल सकती है
कि उन हत्यारों के हाथों आप,मरने से बच सकते हैं

इससे पहले
कि उनके हाथों,
कत्ल होने से आप ही बच पायें
आप बाकी तटस्थ लोगों के लिए
कविता की ज़मीन पर बैठकर
यह एकमात्र सच गायें
कि धूमिल इतना कायर था कि उत्तरप्रदेश था
क्यों ?
कैसे ?
मैं तो यह सोचकर परेशां हूँ !! हैरान हूँ !!
मैं तो बस,
इतना संवेदनहीन हूँ ,
जैसे कि राजस्थान हूँ !!
आज तक
मैंने,
किसी मस्जिद में जाकर
इबादत नहीं की

आज तक
मैंने,
किसी मन्दिर में जाकर
माथा नहीं टेका

वैसे,
आज से पहले,
मैंने तुम्हैं देखा भी तो नहीं था !

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

उसके बारे में
यह एक बात
बिल्कुल स्पष्ट है,
एकदम सटीक है
कि वो
जब तक ठीक है,
तो ठीक है !

नहीं तो फिर ‘जयराम खटीक’ है
इस समय
व्यवस्था के विरोध में होना
अपनी ही टांग को अपने ही हाथ से काटना था
इसलिए वह व्यक्ति इंकलाब जिन्दाबाद के नारे के साथ उठा
और वापिस अपनी ही देह की कोठरी में गिर गया
और जानने लगा कि यही जिन्दा रहने की जरूरत है
और वह जरूरी सामान बन गया है
इस तमाशे के लिए
इसलिए अपने ही हित में स्थानांतरित होना चाहता है
आप इसे अकेला छोड दें
मैं जानता हूँ, अब यह कुछ देर रोना चाहता है


मैं सडक के बीच का हिस्सा बनकर
फुटपाथ के दर्द को अच्छी तरह से महसूस करना चाहता था
मगर वे राजपथ के राही थे
जो जिन्दा थे और शर्मिन्दा थे

मुझे मालूम है संभावनायें हिंसक हैं
मगर जिंदा रहने के लिए
जब हिंसा एक जरूरत बन जाये
तो तुम एक प्लेट आत्महत्या खा लेना
तुम्हारी जूठन से
तब जिन्दगी निकल कर के भागेगी
तब शायद यह ऑख जागेगी ओर मैं कह दूंगा,
यार चुप रहो बहुत से काम हैं
बहुत से नाम हैं
जो जुबां पर अगर आ भी जाये भूल से
तो हमें सोचना पडेगा कि हम किससे मरना पसंद करेंगे
तलवार से या त्रिशूल से

वही साधारण आदमी
तुम्हारे पक्ष में गवाही देते वक्त
सिर्फ एक ही बात में असाधारण था
कि कल सभा में अपनी बात
सबसे ज्यादा असरदार तरीके से उसी एक व्यक्ति ने रखी थी
जिसने सारे वार्तालाप के दौरान अपने मुँह से एक भी शब्द नहीं कहा

इससे पहले कि तुम्हारे वक्त की व्याकरण
मेरे समय के शब्दों को आत्महत्या के लिए उत्साहित करें
में आऊँगा यह सच बताने
कि तुम जिनके खिलाफ खडे हो
अपनी सारी आदतों के कद में
तुम उनसे भी दो हाथ बडे हो
भाई, अजीब बेवकूफी है ?
यहाँ सस्ती शायरी को लोकगीतों की तरह गाने वाला जाहिल,
गंवार, तो घोषित शायर सूफी है


मैं आत्महत्या के सबसे सरल विकल्प की तरफ बढा

और सांध्यकालीन आखबार का तीसरा पृष्ठ ओढकर के सो गया

सब कुछ प्रदर्शन था या बनावटी
तुम्हारे अरण्य रोदन के कार्यक्रम से
बबूल की एक शाख तक नहीं कटी
तुमने कहा क्रान्ति हमने कहा हो ली
देख लो लोगों ने, दिमाग के बाजार में
इंकलाब जिन्दाबाद की अनगिनत दुकानें खोल ली


वे मेरी आस्था को मजबूत करना चाहते हैं

इसलिए मुझे मेरे स्थान से च्यूत करना चाहते हैं
और मैं चीखना चाहता हूँ
अपनी पूरी ताकत से
ताकि कोई मेरी आवाज को अपने हक में इस्तेमाल करे
एक गवाही की तरह में फैल सकूँ

जहां एक कलम और स्याही की तरह तुम थे
वहां में काबिज था ,अपने होने के दम पर
ताकि कह सकूँ कि श्रीमान आप न आयें में शर्मिन्दा हूँ
बस माफ करें
यही क्या कम है कि मैं अपनी जगह पर जिन्दा हूँ
अपनी बातचीत के प्रारम्भ में ही हम इस बात पर एकमत हो लें कि जाति इस देश की सबसे बडी सच्चाई है. जातियों ने हिन्दु समाज को सदियों से ऐसी घृणित परम्परा में विभाजित कर दिया है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की जातीय स्थिति और सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति के बीच एक घनिष्ठ संबध स्थापित हो गया है. जाति के आधार पर किसी भी आदमी का सामाजिक विस्तार हमेशा के लिए निश्चित हो जाता है. यहाँ सामाजिक विषमता का आधार वर्ण या वर्ग नहीं बल्कि जाति ही है, क्योंकि जातियों के आधार पर ही कुछ लोगों का सामाजिक शोषण और भेदभाव किया जाता है। इस देश के नागरिक रहते तो समाज में है मगर जीते अपनी ही जाति में है.इस देश में आरक्षण जाति के आधार पर दिया गया है. जाति के आधार पर ही लगभग सभी राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार खडे़ करते हैं. जातीय मतों के आधार पर ही वह जीतकर के भी आते हैं. तो जब भारतीय राजनैतिक और सामाजिक जीवन के अधिकतर काम जाति आधारित ही हैं तो समझ में नहीं आता कि जनगणना में जाति को शामिल करने से भारतीय राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर कौन सा पहाड टूट पडे़गा ?
यह तल्ख हकीकत है कि इस देश में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है मगर जाति के बगैर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि राजनीति में सत्ता प्राप्त करने के लिए कोई जाति अछूत नहीं होती. कोई भी राजनैतिक दल किसी दूसरे राजनैतिक दल की जाति नहीं पूछता. जिनको यह लगता है कि जातिगत जनगणना से हमारे राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे के टुकडे-टुकडे हो जायेंगें, दरअसल वे भारतीय राजनीति के चरित्र और जाति व्यवस्था की असलियत से पूरी तरह अनभिज्ञ है. भारतीय संस्कृति की इस सबसे मजबूत कड़ी ‘जाति’ को तोड़ने का अरमान लिए हुए ही सम्माननीय लोहिया जी टूट गये. जाति समाप्त करने का सपना देखते हुए आदरणीय अंबेडकर समाप्त हो गये. और ये ही क्यों इनसे पहले भी जाति व्यवस्था पर सबसे प्रबलतम प्रहार महात्मा बुद्व ने किया था, आज जाति व्यवस्था भारत में बदस्तूर जारी है, मगर बुद्व कहाँ है ? जाति तोड़ने के क्रम में बापू और बाबासाहब ने अर्न्तजातीय विवाहों की बात की थी. अर्न्तजातीय विवाह तो दूसरी बात है आज तो एक ही गौत्र में विवाह करने पर नवविवाहित जोडों की गर्दनें उडा दी जाती है. ऐसा लगता है कि खापों की पंचायत व्यवस्था उस भारतीय कानून-न्याय व्यवस्था से भी बढ़कर है जिसने न जाने क्या सोचकर एक जाति के द्वारा अपने राजनैतिक अधिकारों के लिए चलाये जा रहे आन्दोलन को ‘राष्ट्रीय शर्म’ की संज्ञा दी थी. 1947 का विभाजन राष्ट्रीय शर्म नहीं है ? 1975 का आपातकाल ! 1984 के दंगे ! 1992 का बाबरी मस्जिद ध्वंश ! 2002 के गोधरा दंगों ! को छोडकर के एक वंचित, शोषित, जाति द्वारा अपने राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने को न्याय पालिका के द्वारा ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताना ही राष्ट्रीय शर्म लगता हैं. इससे यह भी पता चलता है कि जाति के प्रेत से भारतीय न्याय व्यवस्था भी अलग नहीं है.
वे कौन लोग हैं जो जनगणना में जाति को शामिल किये जाने को विरोध कर रहें हैं ? अगर जातिगत जनगणना भारतीय समाज की सारी हकीकत आपके सामने ला देती है तो आप इससे डर क्यों रहे हैं ? जो लोग यह कह रहें हैं कि आज से 80 साल पहले 1931 में जब जनगणना में जाति को शामिल किया गया था तो उस समय जनगणना के जातिगत आंकडों को अंग्रेजी सरकार ने भारतीय समाज की एकता को तोडने के लिए काम में लिया था, हो सकता हो कि लिया हो। मगर आज आप जातिगत जनगणना करके उन्हीं आंकडों को समाज को जोडने के लिए काम में क्यों नहीं लेते. आंकडों से समाज नहीं टूटता बल्कि उनके गलत प्रयोग से टूटता है. आप इन्हीं तथ्यों और आंकडों की रौशनी में समाज को जोडने का प्रयास क्यों नहीं करते ? अगर उन्होंने इन चिरागों से हमारे घरों में आग लगाई है तो आप इन्हीं चिरागों से हमारे जीवन का अंधेरा मिटाने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं ?
दरअसल सच बात तो यह है कि जातिगत जनगणना से प्रमुख रूप से दो प्रकार के लोग डर रहे हैं। एक तो वे हैं जो असंवैधानिक रूप से परम्परा और संस्कृतिप्रदत्त आरक्षण का पिछले 5000 सालों से लाभ लेते हुए नगण्य संख्या होने के बाद भी सुविधा प्राप्त करने में शीर्षस्थ हैं. जिन्होनें इस देश में संस्कृति और परम्परा, धर्म और विश्वास के नाम पर दलित और पिछडी जातियों का शोषण करते हुए अपना वर्चस्व कायम किया है. जातिगत जनगणना से सबसे ज्यादा पोल इन्हीं लोगों की खुलने वाली है जो संख्या में कम हैं मगर राजनैतिक और प्रशासनिक जीवन में जिनका वर्चस्व बना हुआ है. इसीलिए जातिगत जनगणना का प्रबल विरोध इन्हीं की तरफ से हो रहा है. क्योंकि यह नहीं चाहते कि इनके द्वारा किए गये शोषण का वास्तविक चरित्र लोगों के सामने आये.
दूसरे वे हैं जो दलित या पिछडे समाज से हैं मगर जिन्हौंने संविधानप्रदत्त आरक्षण का आजादी के बाद भरपूर और भयंकर लाभ उठाते हुए अपने ही तबकों के निम्न और कम शिक्षित व्यक्तियों के अधिकार पर डाका डाला है। इन्होंने विकास और आरक्षण के नाम पर बंटने वाली रेवडियों का अधिकतर हिस्सा खुद ही हड़पा है. सरकार के द्वारा प्रगति और विकास के नाम पर बहने वाली गंगा के परनाले इन्हीं के घरों में जाकर के गिरे है. इसलिए इस जनगणना में न सिर्फ जातिगत गणना होनी चाहिए बल्कि यह जानने को प्रयास भी किया जाना चाहिए कि विभिन्न जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है. उसके बाद उन कारणों की खोज की जानी चाहिए जिससे कुछ जातियाँ तो रोज पेट पर पट्टी बांध कर के भूखे ही सोने पर विवश है तो कुछ विकास और प्रगति के नाम पर बांटी गई सुविधाओं और लाभों को खा-खाकर कर अघा रही है.
अभी तो प्रधानमंत्री, उनकी सरकार, और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय यह फैसला लेगा कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए या नहीं लेकिन अगर होती है और जनगणना के समय अगर जनगणना कर्मी आपके पास आकर के आपसे आपकी जाति पूछता है तो आप भारतीय राजनीति के इस जनगणना-यज्ञ में शामिल होने की भावना लेते हुए गर्व के साथ अपनी जाति बतायें, चाहे आपकी जो भी जाति हो। जाति के नाम पर भारतीय या हिन्दुस्तानी बताना कोई समझदारी नहीं है क्योंकि भारतीय या हिन्दुस्तानी होना यहाँ की राष्ट्रीयता है यह जाति नहीं है. अगर आपने राजकीय या सरकारी दस्तावेजों में या सामाजिक व्यवहार में अपने नाम के आगे आपकी अपनी जाति जैसे कि शर्मा, वर्मा, सिंह, सिन्हा, सक्सेना, माथुर, माहेश्वरी, जैन, सैन, यादव, जाटव, जाट, गुर्जर, मीणा, भील, खटीक, हरिजन, बैरवा, इत्यादि लगा रखी हैं और आप इसे अपने नाम के साथ प्रयोग करते हैं तो गर्व से इसे जनगणना कर्मी को भी बतायें. जो लोग यह कह रहे हैं कि वह जनगणना कर्मी को अपनी जाति ‘भारतीय’ या ‘हिन्दुस्तानी’ बतायेंगें, उन्होंने शुतरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन को रेत में घुसा रखा है. मुझे अभी पता नहीं कि ये व्यक्ति सरकारी दस्तावेजों में और सामाजिक व्यवहार में अपने नाम के आगे उपरोक्त जातियों का प्रयोग करते हैं या नहीं करते. लेकिन अगर प्रयोग करते हैं और अपने आप को हिन्दुस्तानी या भारतीय बताते हैं तो यह उनका सांस्कृतिक दोगलापन हैं जो समयानुसार गिरगिट की तरह रंग बदलता रहता है.
आप भारतीय या हिन्दुस्तानी लिखवाने के तभी हकदार हैं अगर आपने अपने नाम के आगे कभी जातिसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया हो। और अगर वास्तव में आप अपने नाम के आगे कोई भी जातिसूचक उपनाम या जाति नहीं लगाते हैं तो मेरी तरफ से बधाई स्वीकार करते हुए आप जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करने संबधी कॉलम का जातिगत जनगणना के प्रपत्र में शामिल होने का उसी प्रकार से इन्तजार करें जिस प्रकार से भारतीय राजनैतिक प्रणाली या चुनाव लडने वाले उम्मीदवारों में से किसी भी उम्मीदवार के समर्थन में यकीन नहीं करने वाले जागरूक मतदाता, ऐसा ही एक कॉलम मतपत्रों में शामिल होने का न जाने कब से इन्तजार कर रहे हैं.
आप भविष्य के भारत का विजन लेकर के चलें। वर्ग को लेकर के विकास का छलावा आपने पिछले 60-65 सालों में आराम से चला लिया है. मगर उससे भारत के विकास की तस्वीर ज्यादा नहीं बदली है बल्कि बेरोजगार सवर्ण युवकों और शैक्षिक रूप से पिछडे दलित व वंचित युवकों में आक्रोश ही बढा है. बेरोजगार सवर्ण युवकों में तो इस वजह से आक्रोशित हैं कि सक्षम और योग्य हाने के बाद भी उनको अवसर नहीं मिल रहे हैं और शैक्षिक रूप से पिछडे दलित व वंचित युवकों में आक्रोश इसलिए है कि उनके हिस्से कि मलाई उन्हीं के अपने ‘क्रीमी लेयर’ वाले भाई बंधु खा रहे हैं.
इसलिए इन तमाम अन्तर्विरोधों को दरकिनार करते हुए, एक बार पूरी इमानदारी से विकास का प्रयास जाति को लेकर के करके देख लें। भले ही ज्यादा न हो तो 5-6 साल के लिए ही सही. यकीन मानिये ये 5-6 सालों का प्रयास इस देश की तस्वीर को पूरी तरह से बदल देगा. इससे न सिर्फ वास्तविक रूप में सामाजिक व आर्थिक वंचितों की पहचान होगी बल्कि हम क्रान्तिकारी और वास्तविक समतावादी समाज की तरफ पहला कदम भी बढा सकेंगे. इसलिए भारतीय समाज और राजनीति के सबसे बडे सच यानि जाति को नजरअन्दाज नहीं करें. अगर सरकार इस देश में वास्तविक रूप से वंचित, शोषित, दलित समुदाय को अपने विकास के कार्यक्रमों का लाभ देना चाहती है तो उसको जनगणना जाति के आधार पर कराने के बारे में दृढसंकल्प होना चाहिए. पता नहीं क्या सोचकर ‘अंधेरे में’ जीने वाले प्रख्यात हिन्दी कवि मुक्तिबोध ने यह मशहूर जुमला दिया था कि-‘‘पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’’ आज तो हर कोई यह पूछने को उतावला और बावला हो जाता है कि ‘‘पार्टनर ! तुम्हारी जाति क्या है ?’’
हो सकता हैं कुछ समय में जनगणनाकर्मी भी आपसे आपके घर में आकर इसी प्रकार का सवाल करे. जवाब सोच कर ही दें !
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विश्वव्यापी सर्वेक्षण किया गया जिसमें एक ही सवाल पूछा गया था कि-‘‘बाकी दुनिया में अन्न की कमी को दूर करने का क्या उपाय है, इसके बारे में कृपया अपनी प्रमाणिक राय दें।’’
यह सर्वेक्षण बुरी तरह से असफल हुआ क्योंकि-अफ्रीका में यह पता नहीं था कि 'अन्न' क्या होता है.
भारत में लोगों को यह पता नहीं था कि 'प्रमाणिकता' क्या होती है.
यूरोप में यह लोग नहीं जानते थे कि 'कमी' क्या होती है.
चीन में यह मालूम नहीं था कि 'राय' क्या होती है।
दक्षिण अमेरिका में यह ज्ञात नहीं था कि 'कृपया' के क्या मायने है
मध्य पूर्व में यह नहीं पता था कि 'उपाय' क्या होता है।
और अमेरिका में यह पता नहीं था कि 'बाकी दुनिया' क्या होती है
जार के जमाने में रूस में राजनैतिक कैदियों को सजा देने के लिए बर्फ से अटे पडे़ साइबेरिया की जेलों में भेजा जाता था. ये जेंले कुछ वैसी ही थी जैसी अंग्रेजी सरकार के शासन काल में भारत में अंडमान निकोबार की सेलुलर जेलें हुआ करती थी, जिन्हें, राजनैतिक कैदियों को दी जाने वाली विकट सजाओं, असहनीय प्रताडनाओं, भयंकर पीड़ाओं और वहाँ से छुटकर नहीं भाग सकने के कारण ‘काले पानी की सजा’ कहा जाता था।
एक लेखक नोबोकोव को जब उसके लिखे राज्यविरोधी क्रांतिकारी लेखों के कारण सजा देकर के साइबेरिया की जेलों में भेजा जाने लगा तो उसके संपादक मित्र ने विदा लेते हुए उससे कहा-‘क्योंकि वहाँ से तुम जब पत्र लिखोगे तो उसे भेजने से पहले जेल प्रशासन के लोग उसे पढेंगें. इसलिए तुमने अगर तुम्हारे साथ हाने वाली ज्यादतियों को लिख भी दिया तो ये लोग उस पत्र को मुझ तक नहीं पहुंचने देंगे और मैं तुम्हारी मदद के लिए कुछ भी नहीं कर पाऊँगा। वैसे तो तुम राजनैतिक कैदी हो इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हारे साथ रियायत बरती जायेगी. इसलिए तुम ऐसा करना कि अगर तुम्हें वहाँ आराम से रखा जाता है तो तुम नीली स्याही से पत्र लिखना और अगर जेल प्रशासन तुम्हें परेशान करें, प्रताडना दें, पीडा पहुंचायें तो तुम लाल स्याही से पत्र लिखना, मैं समझ जाऊंगा और मैं तुम्हारी मदद के लिए कुछ न कुछ जरूर करूंगा’.
नोबोकोव के वहाँ से आने वाले सभी पत्र नीली स्याही से सामान्य बातों की जानकारी देते हुए लिखे होते थे। संपादक ने सोचा वह वहाँ पर खुश है और उसे किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं है.
लेकिन वो जानता था कि राजनैतिक कैदियों के साथ वहाँ किस प्रकार का क्रूर व्यवहार किया जाता है. अतः उसने चिन्ता करते हुए नोबोकोव को लिखा-‘क्या बात है मित्र ! तुम ठीक तो हो.’जवाब मैं नोबोकोव का पत्र आया- ‘याद करने के लिए शुक्रिया दोस्त ! मैं यहाँ ठीक हूं. मुझे किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं है. और अगर है तो बस इतनी सी है कि यहाँ पत्र लिखने के लिए लाल स्याही नहीं मिलती है।’
तो जनाब ! मैं भी नोबोकोव हूं और लिख रहा हूं कि यहाँ ‘भी’ पत्र लिखने के लिए लाल स्याही नहीं मिलती है

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

आपकी गलती यह नहीं थी कि,
आपने हम पर पत्थर फेंके
आपकी ग़लती यह थी की,
यह पत्थर हमारे घर की दीवारों से लिए गये थे

आपकी गलती यह नहीं थी कि,
आपने हमारे घरों को फूंका
आपकी ग़लती यह थी कि,
यह आग हमारे घरों के चूल्हों से ली गयी थी

आपकी ग़लती यह नहीं थी की,
आपने हमें गालियाँ दी
आपकी ग़लती यह थी कि,
ये गालियाँ हमारी मातृभाषा में दी गयी थी

आपकी गलती यह नहीं थी कि,
आपकी कोई ग़लती नहीं थी
आपकी गलती यह थी कि,
आप ग़लत होकर भी क्यों सही थे
अगर अफ़सोस की परिधि में
सम्बन्धों की हताहत देह पर
तुम्हारी भावुकता का दर्प
मेरे लिए,
एक अधिकार समझ कर रो सकता है
तो मैं,
सबके सामने
इस एक सच को स्वीकार लेता हूँ
कि इस दुनिया में
रिश्तों के नाम पर
कुछ भी हो सकता है

फिर भी
अगर तुम जानना चाहो
तो जान लो
कि जिस समय तुम्हारे घर का
हर एक कोना
तुम्हारे लग्न-मंडप की रौशनी में
नहाया था
उसी समय,
मैंने
अपने घर के अँधेरों से जूझती
एकमात्र दीपक की लौ को
अपनी काँपती हथेलियों से
सहेजा था, बचाया था

और,
जो यह मेरा कर्म था
अगर तुम्हारी निगाह में सार्वजनिक शर्म था

तो मैं मान लेता हूं कि,
मैं बुज़दिल था
क्यों कि
मुझे
बचा कर रखनी थी अपनी आवाज़
उस आदमी के लए
जिसके
भीतर के भय को
अपने पक्ष में
एक दिन,
मेरे सच का प्रयोग करना है
तुम आज इसीलिए ज़िन्दा हो
कि मुझे,
तुम्हारे लिए
एक दिन तुम्हारे हिस्से की मौत मरना है

इससे पहले
कि तुम्हारे हमदर्द
मुझे दूसरा एकलव्य बनाकर
अँगूठे की जगह मेरी जुबान काट लें
न मैं उनके अत्याचार भूलना चाहता हूँ
न ही
मैं,
तुमसे,
तुम्हारे धर्म और जाति का दर्शन सीखना चाहता हूँ
में बस एक बार,
अपने ही पक्ष में
अपनी पूरी ताकत से चीखना चाहता हूँ

जिससे
आवाज में ही सही मेरा आक्रोश,
मेरे भीतर से बाहर फैले
और
तुम्हारी संवेदनशून्य भावनाओं से
उनका सारा खोखलापन ले ले

तुम कैसी हो
यहाँ सब ठीक है
भूख है, गरीबी है, तन्हाई है, उदासी है
आँखें बेचैन है, प्यासी है

यहाँ तो सब ठीक है,
बस,
तुम कैसी हो !

यहाँ सब ठीक है
दर्द है, अलम है, रंजोगम है, पीड़ा है, प्रताड़ना है
बाक़ी
बची अगर तुम में,
फिर भी कुछ चाहना है

तो वायदे के मुताबिक़ अपनी घोषित दुश्मनी निभाना
और
अपने 'चतुर्थी-कर्म' के लिए
मेरे शब्दों की पाकीज़गी में ही नहा कर जाना

ताकि,
मैं भी तो देखूं कि
दर्द की गहराइयों में
खामोशियों के राग कैसे जगते हैं
और
तुम्हारे दोशीजा पाँवों के निशाँ
मेरी संवेदना की पीठ पर
कैसे लगते हैं

मजबूरी, वफ़ा, वादे , सपने, झूठ, फरेब और कल्पनाये
मेरे सामने तुमने कितने सारे विकल्प रखे हैं
में तुम्हें,
तुम्हारी दृष्टि को
सराहता हूँ
मगर आप इन सब को बख्शें
और मुझे भी
मैं, सिर्फ जीना चाहता हूँ
और अब अकेले जीना
तुम्हारे न होने के ग़म
और
मेरे होने के अफ़सोस को
अब, हर रोज़
ज़िन्दगी की सच्चाइयों में टुकड़ा-टुकड़ा कर के खो सकता है
इसीलिए
में
आज सबके सामने
इस एक सच को स्वीकार कर रहा हूँ
कि इस दुनिया में
रिश्तों के नाम पर
कभी भी,
कहीं भी,
कुछ भी हो सकता है !
मेरी आस्थाओं के कत्ल के मुकदमे की सुनवाई
जिस जगह हो रही थी
वहां एक कौम
अपने इतिहास के हाथों
लहुलुहान अपनी ही किस्मत को रो रही थी

और में चुप था
क्योंकि वहाँ पर सन्नाटा था, ख़ामोशी थी
और अंधेरा बडा ही घुप्प था

और वो आत्महत्या के नवीन संस्करण थे
उनकी आँखों में सपने थे
मगर,उनकी बातों में सेल्फास था
तभी तो
वह वक्तव्य
जो उन्होंने मरते हुए किसानों के पक्ष में दिया था
बहुत ही खास था
अगर तुम्हारे पास
एक मात्र रास्ता
इन अंधों की भीड में से
महज एक ‘काने’ के चुनाव का है

तो
मैं भी नहीं जानना चाहता
कि
तुम्हारे मस्तिष्क पर
यह रक्त तिलक किस
विधवा के 'मासिक स्त्राव' का है
हमारी माँ-बहनों की अस्मतें
तुम्हारी धोतियों से खुलती है

हमारे बच्चों के गले में
तुम्हारे बच्चे मूतते हैं

हमारे बुजु़र्गों की साँसों में
तुम्हारी जिल्लत जी रही हैं

और
अगर तुम कहते हो कि
तुमने हमें इज़्ज़त से नवाजा है

चलो एक पल को मान भी लें
कि,
यही सच है
तो इस सच की सच्चाई को
मेरी भाषा के तर्कों से तराशने के लिए
कृपया,

मुझे भी दें
आप
सिर्फ और सिर्फ़ एक मौका
आप सब लोगों को इज़्ज़त से नवाजने के लिए
नहीं
यहाँ पर कोई नहीं आयेगा
इसलिए
अगर तुम चाहो

तो अपने चेहरे से मुखौटा हटाकर के
अपने ‘मैं’ को नंगा कर सकते हो

लो मैंने कैमरा ऑफ कर दिया है
और रिकार्डर भी बन्द है
अब आप अपने चेहरे से मुखौटा हटा सकते हैं
हाँ अब ठीक हैं
मुझे आपका यही आदिम चेहरा पसन्द है
एक लडकी,
अपना बदन ओढ़कर
अख़बार के तीसरे पेज पर
चौथे कालम में
हमेशा की तरह सो गयी !

बस कविता हो गयी !!

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

एक उम्र होती है जब सर्द हवा का खिड़की की हद को छूकर गुजरना अच्छा लगता है,बारिश की बूंदों को अनवरत अपने आँगन के दरख़्त पर गिरते देखकर बोरियत नहीं होती और कॉफी के प्याले को आधा पीने के बाद अपने साथी के आधे पिये प्याले से बदल कर पीने की शरारती ज़िद उस समय की ज़रूरत लगती है। यह सब जो कुछ भी लिखा गया है उसी उम्र के साये में बैठ कर के लिखा गया है। एक स्वघोषित-स्वपोषित ज़िद को अंजाम देने और उस की अनुभूति पर ऐसे कई अन्देशे कुरबान होते हैं। जिनमें कभी यह सोचा था कि जब भी किसी को कोई तोहफा देने का मौका आयेगा (जिसे मुझसे यह शिकायत हमेशा बनी रहती है कि मैं अव्वल दर्जे का कंजूस उसे कभी कुछ नहीं देता) तो मैं अपनी सारी तुकबन्दी वाली शैतानियाँ उसे सौंप कर उस अवसर को अविस्मरणीय बना दूंगा क्योंकि मेरे लिए यही तरीका अलग सा हो सकता था और आज भी है,इसी बहाने मैं इस अहसास को दिल में लिए जीता रहूँगा कि यह जो कुछ भी लिखा गया है यह या तो मेरे पास है या फिर उसके पास जिसके लिए शायद कभी इस में से कुछ लिखा गया हो।
      ऐसा सोचना ही मुझे अनाम अथाह सी खुशी प्रदान करता था मगर शेखर के बचकाने प्रोत्साहन, भूपेश की नाबालिग़ तारीफ़, और इलियास की अधमरी आलोचना के बावजूद भी ‘कम्प्यूटर-जीनीयस‘ अमित की मसरूफ़ियत और मेरे जंगली संकोच ने ऐसा मौका कभी भी सही समय पर नहीं आने दिया,और बस...............! फिर भी कोई ग़म नहीं,कोई रंज नहीं..... कुछ दोस्त थे जिन्होंने कभी भी कमजोर नहीं पड़ने दिया,कुछ नेक और मजबूत इरादे थे जिनके साथ रहकर मैंने खुद को कभी भी अकेला नहीं समझा।ज़िन्दगी बहुत दफ़ा अगर मुझे आसान और जीने लायक लगी भी तो उसकी एक मात्र वजह यह साहित्य ही था और मैं, इसी साहित्य के रास्ते से गुजरा वरना सफ़र हयात का काफी तवील था….......
......…………......और इस तवील सफ़र में जब भी निराशा घने काले अँधेरे की तरह मुझ पर क़ाबिज़ हो जाती थी तो यह ग़ज़लें, नज़्में ही थी जो दीपक की लौ की तरह मुझमें जीने, जिन्दा रहने और जीतने का हौंसला बनाये रखती थी। अब जब भी कभी यह सोचता हूँ तो डर लगता है कि अगर यह रचना धर्म या इसे या इसके समानान्तर सहरुपी रचनाओं को जानने समझने का मर्म मेरे पास नहीं होता तो क्या होता। पता नहीं, मैं खुद भी ज़िन्दा होता या नहीं ! क्योंकि यह नज़्म ही तो थी,जिसने उस दौर में मेरे मुमकिन आक्रोश और नामुमकिन सपनों को अपने में समेट कर एक आकार दिया,जिस दौर में अपने-बेगाने तो दूर की बात,मेरा साया भी मेरा साथ नहीं देता था। यह ग़ज़ल ही तो थी जिसने वैचारिक, आत्मिक आत्महत्या की तमाम जायज और नाजायज कोशिशों से आहत होने से मुझे और मेरी संवेदना को बचाये रखा,और उस तक़लीफदेह और निराशापूर्ण माहौल में मेरा जिन्दा बचना, मेरे बचने और होने को क़ागज़ों से तोलता था और क़ागज़ों में ही बोलता था। उसी पीड़ा, त्रासदी, तन्हाई, अकेलेपन, संघर्ष और कुछ कर गुजरने की ज़िद, तड़प, आक्रोश, कशमकश में जो कुछ भी मेरे जेहन में उमड़ता था,(जिसे मैं न तो किसी के सामने कह सकता था और न ही किसी के सामने रख सकता था) ,वह सब मैंने क़ागज़ों से कहा और क़ागज़ों में ही रखा और पता नहीं कब इस सारी प्रक्रिया में बात निकली और दूर तक चलती चली गयी।
फिर भी आज अगर अपने आप से ही प्रश्न पूछने की हिम्मत कर यह जानना चाहूँ कि मैंने यह सब क्यों लिखा तो घूम फिर कर अपने आप को देने के लिए एकमात्र जवाब यह ही नजर आता है कि लिखना एक समय मेरे ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी था जीने की पहली और बुनियादी शर्त थी।सच कहूँ, तो अब इन अशआर की रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए मुझे वैसी ही शर्मिंदगी और झिझक महसूस होती है जैसी झिझक और शर्मिंदगी किसी भी आदमी को अपनी पहली मोहब्बत के बारे में बात करते हुए होती होगी, ग़ज़ल भी तो मेरी पहली मोहब्बत ही रही है। अक्सर क्या,मेरे साथ तो हमेशा ही ऐसा होता आया है कि जब आगे बढ़ने की सभी राहें बन्द लगने लगती है और कोई उम्मीद नजर नहीं आती तब मुझे अपना रास्ता किसी शेर की रौशनी या ग़ज़ल के प्रकाश में ही नजर आता था।
मुझे याद है एम.एस सी.में कुछ अंको से अपनी चाहत के तय मुकाम पर नहीं पहुच पाने के ग़म को बॉबी के पापा ने इस एक शेर से धोने की कोशिश की थी,-कि
”जैसे जैसे हम ठोकरें खाते गये,
शौके मंजिल और भी बढ़ता गया“
और फिर मेरी तरफ से बात कुछ यू बनी थी कि -
”मुश्किलों ने हार न मानी तो क्या
लड़ना था मेरा काम में लड़ता गया“
और यह सब रचनायें भी जो कि यहाँ इस किताब में शामिल है अपने आप को किसी मुकाम पर स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई का एक हिस्सा ही तो है।दरअसल में,मैं एक छोटे से कस्बे के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आँखों में सपने, दिल में उमंगे, और कंधो पर कुछ बेहतर करने की जिम्मेदारी लेकर ‘‘बड़ा आदमी‘‘ बनने के लिए अजमेर जैसे विस्तृत-विकृत होते शहर में आया था। बाद में (काफी बाद में) मैंने किताबें पढ़कर के ही जाना था कि यह बड़ा आदमी बनने की दौड़ एक अंधी दौड़ है जहाँ आदमी जीतता नहीं है बल्कि दौड़ते-दौड़ते ही दम तोड़ देता है। तो मैं भी इस अंधी दौड़ के जंगल में निरर्थक दौड़कर, दम तोड़ ही देता अगर मुझे वसीम बरेलवी के इस शेर ने हाथ पकड़कर इस बेवकूफी से बाहर नहीं खींच लिया होता कि –
”मैं जमाने में बड़ा कैसे बनू ,
इतना छोटापन मेरे बस का नहीं“
..................और सच में मेरे बस का तो कुछ भी नहीं, अगर होता, तो इस मुल्क में क्या यह शायरी कर रहा होता, जिसे सुनते ही (वैसे तो कौन सुनता है और कौन सुनाता है) सामने वाला अपने आप को शायरी की दुनिया का 'कैरोलस लीनीयस' मानकर मुझे भी नामकरण की उस सूली पर टांगने में समय नहीं लगाता जहाँ मुझसे पहले भी कई आशिक मरे/टंके पड़े हैं। भला यह कोई जरूरी है कि हर आशिक शायर हो और हर शायर आशिक ! मुझे तो आज भी सन इकारानवें की मई की दूसरी तारीख की वो तपती हुयी दोपहरी याद है जब अपनी ऊब और खालीपन मिटाने के लिए मैं अजमेर के कचहरी रोड़ पर किसी किताबों की दुकान से ग़ज़ल की कोई सी भी किताब माँग रहा था। दुकानदार ने मुझे ‘‘साये में धूप‘‘ दी थी और उस किताब के साये में मैंने शब्दों, विचारों, भाषा, नये प्रतीक-प्रतिमानो, अभिव्यक्ति की वो धूप देखी थी जिसमें तपकर मेरा सारा शायराना जूनुन, साहित्यिक जोश,और तुकबन्दी का शौक मोम की तरह पिघल गया था। फिर क्या, दुष्यन्त द्रोणाचार्य थे और मैं एकलव्य ! एक लम्बे समय तक दुष्यन्त मेरे आगे शैली का परचम उठाकर चलते रहे और मैं उनके पाँवों के निशानों पर चलता हुआ उनके पक्ष में आवाज उठाता घूमता रहा। और यह व्यक्ति पूजा इस स्तर तक गयी कि उनके –
”कहाँ तो तय था चिरागाँ हर एक घर के
लिएकहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए“
के मेयार पर मैंने अपने इन शब्दों को कसने की गुस्ताखी की थी कि-
”रोशन वक्त के चिरागों से घर भी तेरा नहीं
रहातेरा दावा तो था कि एक भी घर में अंधेरा नहीं रहा“
मगर क्रान्ति उस समय आनी भी थी तो मेरे घर के पते पर तो नहीं ही आनी थी और उस समय की उम्र,हालात,माहौल वक्त भी चाहता था कि थोड़ा सा रोमानी हो जायें। तो अपने राम हो लिए और कोई दामन, शाना, कंधा, बाजू न मिला तो ग़ज़लों, नज़्मों के शाने पर ही सर रखकर रो लिए। फिर जब कोई हमदर्द, हमराह मिला भी तो तब तक अपनी बात ग़मे-जानाँ से निकल कर ग़मे-रोजगार तक आ गयी थी,और फिर ग़मे-रोजगार से निकल कर ग़मे-दोराँ तक। इसलिए अगर ग़मे-रोजगार या ग़मे-दोराँ से निकल कर ग़मे-जानाँ ने कभी पकड़ा और यह लगा कि दिल की दुनिया के मामले में अपना सब कुछ खत्म हो रहा है तो हताश होने से पहले ही बशीर बद्र साहब के यह शब्द मुझे हिम्मत बंधा रहे थे, कि –
”अब मिलोगे तो कइ लोग बिछुड़ जायेंगे,
इन्तेजार और करो अगले जनम तक मेरा“
और इसी तरह हिम्मत बँधाते और होंसला देते बात दुष्यन्त से निकल कर बद्र साहब तक आ गयी थी। फिर कैफी आजमी आये।फिर फैज,निदा फाजली,कतील शिफाई , परवीन शाकिर की शायरी ने मुतास्सिर किया। मगर इतने सारे वटवृक्षों की छाया से गुजरने के बाद मुझमें इतना हीनता बोध आ गया था कि मुझे लगा कि या तो इनसे कुछ अलग लिखो या लिखना बन्द ही कर दो,तो इनसे अलग दिखने/लिखने की कोशिश मैं मैंने पुनरावृत्ति, प्रत्युत्तर, क्रमश:, जैसी नज्में लिख कर एक अलग भाव, भाषा, शैली गढने की कोशिश की। पता नहीं यह कोशिश कामयाब रही या नहीं, बस इतना मालूम है कि जब भी इन्हैं अपनी आँखों के नीचे से गुजारता हूँ तो मेरे मन को अच्छा लगता है.
           हाँ, मुझे यह भी पता है कि जो कुछ भी लिखा जाता है उस की एक सामाजिक प्रतिबद्धता होती है और मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई झिझक नहीं है कि बहुत सी जगह इस लिखे हुए में से बहुत कुछ उस सामाजिक प्रतिबद्धता के मेयार पर खरा नहीं उतरता। मगर जिस तरह हमारा बचपन कितना भी खराब या गलत रहा हो हम उसे हमारे वर्तमान से काट कर अलग नहीं कर सकते उसी तरह एक सामाजिक सोच के परिपक्वन और परिवर्धन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में जो कुछ भी मैंने लिखने की कोशिश की है (हो सकता है उसमे कुछ गलत हो या स्तरहीन ) उसे मैं लाख नापसन्द करने के बाद भी अपने वर्तमान लेखन से काट कर अलग नहीं कर सकता क्योंकि जब भी फुरसत पाकर यादों की रौशनी में इसे पढने बैठता हूँ तो महसूस करता हूँ कि ज़िन्दगी किस तरह धीरे धीरे अपनी आँखें खोलती है। जैसी भी है ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है और मुझे खुशी है कि मेरे पास ज़िंदगी की खूबसूरती को समझने व महसूस करने वाली भाषा है. और इस भाषा के साये में बैठकर आज जब में अपनी नज़र से अपने हालात और हासिल किये गये मुकाम को देखता हूँ तो मुझे अपनी कामयाबी भी उतनी ही अज़ीज लगती है जितनी की नाकामयाबी.आज मैं जो हूँ ,भले ही उससे संतुष्ट नहीं हूँ मगर जहाँ मैं हूँ उसे स्वीकार करता हूँ क्योंकि इस सारे अफसाने में अगर मैं ही नहीं होता तो शायद कुछ भी नहीं होता।इसलिए मेरे होने की वजह से,अच्छा या बुरा जो कुछ भी मेरा हासिल है वह बतर्ज जाँनिसार अख्तर यह सोच कर स्वीकार्य है, कि –
”जमीं को आसमाँ से मिलाने की हवस थी हमको,
काम कुछ अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ“
और वैसे भी कहते हैं कि जो कुछ भी होता है वह अच्छे के लिए ही होता है तो यह सब जो कुछ भी आज जिस तरह से आँखों के सामने उतरा हुआ देख रहा हूँ (जो कि मेरी लाख कोशिशों के बाद भी उस समय सामने नहीं आ सका था जब कि इस की सबसे अधिक जरूरत थी) शायद इतनी जल्दी तो इस तरह से आँखों के सामने इस रूप में नहीं होता अगर में किशनगढ़ से स्थानान्तरित होकर आबूरोड नहीं आया होता। आबूरोड जैसे नीरस और बेकार शहर में सुखवाल साहब के आधे अधूरे कम्प्यूटर ज्ञान ने अगर मुझे भी कॉलेज के कम्प्यूटर के ‘की-बोर्ड‘ पर उंगलियाँ चलाना नहीं सिखाया होता तो यह सब किसी कागज की कब्र से स्याही की कैद को तोडकर कभी भी बाहर नहीं आ पाता और अब जब सामने आ ही गया है तो इसे देखकर,पढ़कर के अपनी पीठ थपथपाने के दुस्साहस के साथ लगता है कि-‘‘सही जा रहे हो भाईजान ! बस लगे रहो !!
            किसी भी किताब से पहले अपने अज़ीज़ों को नाम लिखकर, उनका शुक्रिया अदा कर, उन्हें याद करने की गैरजरूरी रस्म अनिवार्य तौर पर एक परम्परा की तरह अगर मुझे भी निभानी पड़े तो मैं उन का नाम लेना चाहूँगा ,जिनका नाम मैं लाख चाहने के बावजूद भी अपनी शौहरत और उनकी रूसवाई के डर से इस एतराफ़ में भी शामिल नहीं कर सकता. मगर मैंने कहा ना कि यह सब जो लिखा गया है उसे मैं पढूंगा या वो जो मुझे पढ़ता है,पढ़ सकता है या पढ़ने की कोशिश कर रहा है तो जो मेरे लिखे हुए और मेरे इतना करीब है उसके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा. जो है, जैसा है, बन्दा हाजिर है बस.............!!