सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

अपनी बातचीत के प्रारम्भ में ही हम इस बात पर एकमत हो लें कि जाति इस देश की सबसे बडी सच्चाई है. जातियों ने हिन्दु समाज को सदियों से ऐसी घृणित परम्परा में विभाजित कर दिया है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति की जातीय स्थिति और सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति के बीच एक घनिष्ठ संबध स्थापित हो गया है. जाति के आधार पर किसी भी आदमी का सामाजिक विस्तार हमेशा के लिए निश्चित हो जाता है. यहाँ सामाजिक विषमता का आधार वर्ण या वर्ग नहीं बल्कि जाति ही है, क्योंकि जातियों के आधार पर ही कुछ लोगों का सामाजिक शोषण और भेदभाव किया जाता है। इस देश के नागरिक रहते तो समाज में है मगर जीते अपनी ही जाति में है.इस देश में आरक्षण जाति के आधार पर दिया गया है. जाति के आधार पर ही लगभग सभी राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार खडे़ करते हैं. जातीय मतों के आधार पर ही वह जीतकर के भी आते हैं. तो जब भारतीय राजनैतिक और सामाजिक जीवन के अधिकतर काम जाति आधारित ही हैं तो समझ में नहीं आता कि जनगणना में जाति को शामिल करने से भारतीय राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर कौन सा पहाड टूट पडे़गा ?
यह तल्ख हकीकत है कि इस देश में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है मगर जाति के बगैर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि राजनीति में सत्ता प्राप्त करने के लिए कोई जाति अछूत नहीं होती. कोई भी राजनैतिक दल किसी दूसरे राजनैतिक दल की जाति नहीं पूछता. जिनको यह लगता है कि जातिगत जनगणना से हमारे राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे के टुकडे-टुकडे हो जायेंगें, दरअसल वे भारतीय राजनीति के चरित्र और जाति व्यवस्था की असलियत से पूरी तरह अनभिज्ञ है. भारतीय संस्कृति की इस सबसे मजबूत कड़ी ‘जाति’ को तोड़ने का अरमान लिए हुए ही सम्माननीय लोहिया जी टूट गये. जाति समाप्त करने का सपना देखते हुए आदरणीय अंबेडकर समाप्त हो गये. और ये ही क्यों इनसे पहले भी जाति व्यवस्था पर सबसे प्रबलतम प्रहार महात्मा बुद्व ने किया था, आज जाति व्यवस्था भारत में बदस्तूर जारी है, मगर बुद्व कहाँ है ? जाति तोड़ने के क्रम में बापू और बाबासाहब ने अर्न्तजातीय विवाहों की बात की थी. अर्न्तजातीय विवाह तो दूसरी बात है आज तो एक ही गौत्र में विवाह करने पर नवविवाहित जोडों की गर्दनें उडा दी जाती है. ऐसा लगता है कि खापों की पंचायत व्यवस्था उस भारतीय कानून-न्याय व्यवस्था से भी बढ़कर है जिसने न जाने क्या सोचकर एक जाति के द्वारा अपने राजनैतिक अधिकारों के लिए चलाये जा रहे आन्दोलन को ‘राष्ट्रीय शर्म’ की संज्ञा दी थी. 1947 का विभाजन राष्ट्रीय शर्म नहीं है ? 1975 का आपातकाल ! 1984 के दंगे ! 1992 का बाबरी मस्जिद ध्वंश ! 2002 के गोधरा दंगों ! को छोडकर के एक वंचित, शोषित, जाति द्वारा अपने राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने को न्याय पालिका के द्वारा ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताना ही राष्ट्रीय शर्म लगता हैं. इससे यह भी पता चलता है कि जाति के प्रेत से भारतीय न्याय व्यवस्था भी अलग नहीं है.
वे कौन लोग हैं जो जनगणना में जाति को शामिल किये जाने को विरोध कर रहें हैं ? अगर जातिगत जनगणना भारतीय समाज की सारी हकीकत आपके सामने ला देती है तो आप इससे डर क्यों रहे हैं ? जो लोग यह कह रहें हैं कि आज से 80 साल पहले 1931 में जब जनगणना में जाति को शामिल किया गया था तो उस समय जनगणना के जातिगत आंकडों को अंग्रेजी सरकार ने भारतीय समाज की एकता को तोडने के लिए काम में लिया था, हो सकता हो कि लिया हो। मगर आज आप जातिगत जनगणना करके उन्हीं आंकडों को समाज को जोडने के लिए काम में क्यों नहीं लेते. आंकडों से समाज नहीं टूटता बल्कि उनके गलत प्रयोग से टूटता है. आप इन्हीं तथ्यों और आंकडों की रौशनी में समाज को जोडने का प्रयास क्यों नहीं करते ? अगर उन्होंने इन चिरागों से हमारे घरों में आग लगाई है तो आप इन्हीं चिरागों से हमारे जीवन का अंधेरा मिटाने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं ?
दरअसल सच बात तो यह है कि जातिगत जनगणना से प्रमुख रूप से दो प्रकार के लोग डर रहे हैं। एक तो वे हैं जो असंवैधानिक रूप से परम्परा और संस्कृतिप्रदत्त आरक्षण का पिछले 5000 सालों से लाभ लेते हुए नगण्य संख्या होने के बाद भी सुविधा प्राप्त करने में शीर्षस्थ हैं. जिन्होनें इस देश में संस्कृति और परम्परा, धर्म और विश्वास के नाम पर दलित और पिछडी जातियों का शोषण करते हुए अपना वर्चस्व कायम किया है. जातिगत जनगणना से सबसे ज्यादा पोल इन्हीं लोगों की खुलने वाली है जो संख्या में कम हैं मगर राजनैतिक और प्रशासनिक जीवन में जिनका वर्चस्व बना हुआ है. इसीलिए जातिगत जनगणना का प्रबल विरोध इन्हीं की तरफ से हो रहा है. क्योंकि यह नहीं चाहते कि इनके द्वारा किए गये शोषण का वास्तविक चरित्र लोगों के सामने आये.
दूसरे वे हैं जो दलित या पिछडे समाज से हैं मगर जिन्हौंने संविधानप्रदत्त आरक्षण का आजादी के बाद भरपूर और भयंकर लाभ उठाते हुए अपने ही तबकों के निम्न और कम शिक्षित व्यक्तियों के अधिकार पर डाका डाला है। इन्होंने विकास और आरक्षण के नाम पर बंटने वाली रेवडियों का अधिकतर हिस्सा खुद ही हड़पा है. सरकार के द्वारा प्रगति और विकास के नाम पर बहने वाली गंगा के परनाले इन्हीं के घरों में जाकर के गिरे है. इसलिए इस जनगणना में न सिर्फ जातिगत गणना होनी चाहिए बल्कि यह जानने को प्रयास भी किया जाना चाहिए कि विभिन्न जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है. उसके बाद उन कारणों की खोज की जानी चाहिए जिससे कुछ जातियाँ तो रोज पेट पर पट्टी बांध कर के भूखे ही सोने पर विवश है तो कुछ विकास और प्रगति के नाम पर बांटी गई सुविधाओं और लाभों को खा-खाकर कर अघा रही है.
अभी तो प्रधानमंत्री, उनकी सरकार, और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय यह फैसला लेगा कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए या नहीं लेकिन अगर होती है और जनगणना के समय अगर जनगणना कर्मी आपके पास आकर के आपसे आपकी जाति पूछता है तो आप भारतीय राजनीति के इस जनगणना-यज्ञ में शामिल होने की भावना लेते हुए गर्व के साथ अपनी जाति बतायें, चाहे आपकी जो भी जाति हो। जाति के नाम पर भारतीय या हिन्दुस्तानी बताना कोई समझदारी नहीं है क्योंकि भारतीय या हिन्दुस्तानी होना यहाँ की राष्ट्रीयता है यह जाति नहीं है. अगर आपने राजकीय या सरकारी दस्तावेजों में या सामाजिक व्यवहार में अपने नाम के आगे आपकी अपनी जाति जैसे कि शर्मा, वर्मा, सिंह, सिन्हा, सक्सेना, माथुर, माहेश्वरी, जैन, सैन, यादव, जाटव, जाट, गुर्जर, मीणा, भील, खटीक, हरिजन, बैरवा, इत्यादि लगा रखी हैं और आप इसे अपने नाम के साथ प्रयोग करते हैं तो गर्व से इसे जनगणना कर्मी को भी बतायें. जो लोग यह कह रहे हैं कि वह जनगणना कर्मी को अपनी जाति ‘भारतीय’ या ‘हिन्दुस्तानी’ बतायेंगें, उन्होंने शुतरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन को रेत में घुसा रखा है. मुझे अभी पता नहीं कि ये व्यक्ति सरकारी दस्तावेजों में और सामाजिक व्यवहार में अपने नाम के आगे उपरोक्त जातियों का प्रयोग करते हैं या नहीं करते. लेकिन अगर प्रयोग करते हैं और अपने आप को हिन्दुस्तानी या भारतीय बताते हैं तो यह उनका सांस्कृतिक दोगलापन हैं जो समयानुसार गिरगिट की तरह रंग बदलता रहता है.
आप भारतीय या हिन्दुस्तानी लिखवाने के तभी हकदार हैं अगर आपने अपने नाम के आगे कभी जातिसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया हो। और अगर वास्तव में आप अपने नाम के आगे कोई भी जातिसूचक उपनाम या जाति नहीं लगाते हैं तो मेरी तरफ से बधाई स्वीकार करते हुए आप जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करने संबधी कॉलम का जातिगत जनगणना के प्रपत्र में शामिल होने का उसी प्रकार से इन्तजार करें जिस प्रकार से भारतीय राजनैतिक प्रणाली या चुनाव लडने वाले उम्मीदवारों में से किसी भी उम्मीदवार के समर्थन में यकीन नहीं करने वाले जागरूक मतदाता, ऐसा ही एक कॉलम मतपत्रों में शामिल होने का न जाने कब से इन्तजार कर रहे हैं.
आप भविष्य के भारत का विजन लेकर के चलें। वर्ग को लेकर के विकास का छलावा आपने पिछले 60-65 सालों में आराम से चला लिया है. मगर उससे भारत के विकास की तस्वीर ज्यादा नहीं बदली है बल्कि बेरोजगार सवर्ण युवकों और शैक्षिक रूप से पिछडे दलित व वंचित युवकों में आक्रोश ही बढा है. बेरोजगार सवर्ण युवकों में तो इस वजह से आक्रोशित हैं कि सक्षम और योग्य हाने के बाद भी उनको अवसर नहीं मिल रहे हैं और शैक्षिक रूप से पिछडे दलित व वंचित युवकों में आक्रोश इसलिए है कि उनके हिस्से कि मलाई उन्हीं के अपने ‘क्रीमी लेयर’ वाले भाई बंधु खा रहे हैं.
इसलिए इन तमाम अन्तर्विरोधों को दरकिनार करते हुए, एक बार पूरी इमानदारी से विकास का प्रयास जाति को लेकर के करके देख लें। भले ही ज्यादा न हो तो 5-6 साल के लिए ही सही. यकीन मानिये ये 5-6 सालों का प्रयास इस देश की तस्वीर को पूरी तरह से बदल देगा. इससे न सिर्फ वास्तविक रूप में सामाजिक व आर्थिक वंचितों की पहचान होगी बल्कि हम क्रान्तिकारी और वास्तविक समतावादी समाज की तरफ पहला कदम भी बढा सकेंगे. इसलिए भारतीय समाज और राजनीति के सबसे बडे सच यानि जाति को नजरअन्दाज नहीं करें. अगर सरकार इस देश में वास्तविक रूप से वंचित, शोषित, दलित समुदाय को अपने विकास के कार्यक्रमों का लाभ देना चाहती है तो उसको जनगणना जाति के आधार पर कराने के बारे में दृढसंकल्प होना चाहिए. पता नहीं क्या सोचकर ‘अंधेरे में’ जीने वाले प्रख्यात हिन्दी कवि मुक्तिबोध ने यह मशहूर जुमला दिया था कि-‘‘पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’’ आज तो हर कोई यह पूछने को उतावला और बावला हो जाता है कि ‘‘पार्टनर ! तुम्हारी जाति क्या है ?’’
हो सकता हैं कुछ समय में जनगणनाकर्मी भी आपसे आपके घर में आकर इसी प्रकार का सवाल करे. जवाब सोच कर ही दें !

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