शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

एक उम्र होती है जब सर्द हवा का खिड़की की हद को छूकर गुजरना अच्छा लगता है,बारिश की बूंदों को अनवरत अपने आँगन के दरख़्त पर गिरते देखकर बोरियत नहीं होती और कॉफी के प्याले को आधा पीने के बाद अपने साथी के आधे पिये प्याले से बदल कर पीने की शरारती ज़िद उस समय की ज़रूरत लगती है। यह सब जो कुछ भी लिखा गया है उसी उम्र के साये में बैठ कर के लिखा गया है। एक स्वघोषित-स्वपोषित ज़िद को अंजाम देने और उस की अनुभूति पर ऐसे कई अन्देशे कुरबान होते हैं। जिनमें कभी यह सोचा था कि जब भी किसी को कोई तोहफा देने का मौका आयेगा (जिसे मुझसे यह शिकायत हमेशा बनी रहती है कि मैं अव्वल दर्जे का कंजूस उसे कभी कुछ नहीं देता) तो मैं अपनी सारी तुकबन्दी वाली शैतानियाँ उसे सौंप कर उस अवसर को अविस्मरणीय बना दूंगा क्योंकि मेरे लिए यही तरीका अलग सा हो सकता था और आज भी है,इसी बहाने मैं इस अहसास को दिल में लिए जीता रहूँगा कि यह जो कुछ भी लिखा गया है यह या तो मेरे पास है या फिर उसके पास जिसके लिए शायद कभी इस में से कुछ लिखा गया हो।
      ऐसा सोचना ही मुझे अनाम अथाह सी खुशी प्रदान करता था मगर शेखर के बचकाने प्रोत्साहन, भूपेश की नाबालिग़ तारीफ़, और इलियास की अधमरी आलोचना के बावजूद भी ‘कम्प्यूटर-जीनीयस‘ अमित की मसरूफ़ियत और मेरे जंगली संकोच ने ऐसा मौका कभी भी सही समय पर नहीं आने दिया,और बस...............! फिर भी कोई ग़म नहीं,कोई रंज नहीं..... कुछ दोस्त थे जिन्होंने कभी भी कमजोर नहीं पड़ने दिया,कुछ नेक और मजबूत इरादे थे जिनके साथ रहकर मैंने खुद को कभी भी अकेला नहीं समझा।ज़िन्दगी बहुत दफ़ा अगर मुझे आसान और जीने लायक लगी भी तो उसकी एक मात्र वजह यह साहित्य ही था और मैं, इसी साहित्य के रास्ते से गुजरा वरना सफ़र हयात का काफी तवील था….......
......…………......और इस तवील सफ़र में जब भी निराशा घने काले अँधेरे की तरह मुझ पर क़ाबिज़ हो जाती थी तो यह ग़ज़लें, नज़्में ही थी जो दीपक की लौ की तरह मुझमें जीने, जिन्दा रहने और जीतने का हौंसला बनाये रखती थी। अब जब भी कभी यह सोचता हूँ तो डर लगता है कि अगर यह रचना धर्म या इसे या इसके समानान्तर सहरुपी रचनाओं को जानने समझने का मर्म मेरे पास नहीं होता तो क्या होता। पता नहीं, मैं खुद भी ज़िन्दा होता या नहीं ! क्योंकि यह नज़्म ही तो थी,जिसने उस दौर में मेरे मुमकिन आक्रोश और नामुमकिन सपनों को अपने में समेट कर एक आकार दिया,जिस दौर में अपने-बेगाने तो दूर की बात,मेरा साया भी मेरा साथ नहीं देता था। यह ग़ज़ल ही तो थी जिसने वैचारिक, आत्मिक आत्महत्या की तमाम जायज और नाजायज कोशिशों से आहत होने से मुझे और मेरी संवेदना को बचाये रखा,और उस तक़लीफदेह और निराशापूर्ण माहौल में मेरा जिन्दा बचना, मेरे बचने और होने को क़ागज़ों से तोलता था और क़ागज़ों में ही बोलता था। उसी पीड़ा, त्रासदी, तन्हाई, अकेलेपन, संघर्ष और कुछ कर गुजरने की ज़िद, तड़प, आक्रोश, कशमकश में जो कुछ भी मेरे जेहन में उमड़ता था,(जिसे मैं न तो किसी के सामने कह सकता था और न ही किसी के सामने रख सकता था) ,वह सब मैंने क़ागज़ों से कहा और क़ागज़ों में ही रखा और पता नहीं कब इस सारी प्रक्रिया में बात निकली और दूर तक चलती चली गयी।
फिर भी आज अगर अपने आप से ही प्रश्न पूछने की हिम्मत कर यह जानना चाहूँ कि मैंने यह सब क्यों लिखा तो घूम फिर कर अपने आप को देने के लिए एकमात्र जवाब यह ही नजर आता है कि लिखना एक समय मेरे ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूरी था जीने की पहली और बुनियादी शर्त थी।सच कहूँ, तो अब इन अशआर की रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए मुझे वैसी ही शर्मिंदगी और झिझक महसूस होती है जैसी झिझक और शर्मिंदगी किसी भी आदमी को अपनी पहली मोहब्बत के बारे में बात करते हुए होती होगी, ग़ज़ल भी तो मेरी पहली मोहब्बत ही रही है। अक्सर क्या,मेरे साथ तो हमेशा ही ऐसा होता आया है कि जब आगे बढ़ने की सभी राहें बन्द लगने लगती है और कोई उम्मीद नजर नहीं आती तब मुझे अपना रास्ता किसी शेर की रौशनी या ग़ज़ल के प्रकाश में ही नजर आता था।
मुझे याद है एम.एस सी.में कुछ अंको से अपनी चाहत के तय मुकाम पर नहीं पहुच पाने के ग़म को बॉबी के पापा ने इस एक शेर से धोने की कोशिश की थी,-कि
”जैसे जैसे हम ठोकरें खाते गये,
शौके मंजिल और भी बढ़ता गया“
और फिर मेरी तरफ से बात कुछ यू बनी थी कि -
”मुश्किलों ने हार न मानी तो क्या
लड़ना था मेरा काम में लड़ता गया“
और यह सब रचनायें भी जो कि यहाँ इस किताब में शामिल है अपने आप को किसी मुकाम पर स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई का एक हिस्सा ही तो है।दरअसल में,मैं एक छोटे से कस्बे के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आँखों में सपने, दिल में उमंगे, और कंधो पर कुछ बेहतर करने की जिम्मेदारी लेकर ‘‘बड़ा आदमी‘‘ बनने के लिए अजमेर जैसे विस्तृत-विकृत होते शहर में आया था। बाद में (काफी बाद में) मैंने किताबें पढ़कर के ही जाना था कि यह बड़ा आदमी बनने की दौड़ एक अंधी दौड़ है जहाँ आदमी जीतता नहीं है बल्कि दौड़ते-दौड़ते ही दम तोड़ देता है। तो मैं भी इस अंधी दौड़ के जंगल में निरर्थक दौड़कर, दम तोड़ ही देता अगर मुझे वसीम बरेलवी के इस शेर ने हाथ पकड़कर इस बेवकूफी से बाहर नहीं खींच लिया होता कि –
”मैं जमाने में बड़ा कैसे बनू ,
इतना छोटापन मेरे बस का नहीं“
..................और सच में मेरे बस का तो कुछ भी नहीं, अगर होता, तो इस मुल्क में क्या यह शायरी कर रहा होता, जिसे सुनते ही (वैसे तो कौन सुनता है और कौन सुनाता है) सामने वाला अपने आप को शायरी की दुनिया का 'कैरोलस लीनीयस' मानकर मुझे भी नामकरण की उस सूली पर टांगने में समय नहीं लगाता जहाँ मुझसे पहले भी कई आशिक मरे/टंके पड़े हैं। भला यह कोई जरूरी है कि हर आशिक शायर हो और हर शायर आशिक ! मुझे तो आज भी सन इकारानवें की मई की दूसरी तारीख की वो तपती हुयी दोपहरी याद है जब अपनी ऊब और खालीपन मिटाने के लिए मैं अजमेर के कचहरी रोड़ पर किसी किताबों की दुकान से ग़ज़ल की कोई सी भी किताब माँग रहा था। दुकानदार ने मुझे ‘‘साये में धूप‘‘ दी थी और उस किताब के साये में मैंने शब्दों, विचारों, भाषा, नये प्रतीक-प्रतिमानो, अभिव्यक्ति की वो धूप देखी थी जिसमें तपकर मेरा सारा शायराना जूनुन, साहित्यिक जोश,और तुकबन्दी का शौक मोम की तरह पिघल गया था। फिर क्या, दुष्यन्त द्रोणाचार्य थे और मैं एकलव्य ! एक लम्बे समय तक दुष्यन्त मेरे आगे शैली का परचम उठाकर चलते रहे और मैं उनके पाँवों के निशानों पर चलता हुआ उनके पक्ष में आवाज उठाता घूमता रहा। और यह व्यक्ति पूजा इस स्तर तक गयी कि उनके –
”कहाँ तो तय था चिरागाँ हर एक घर के
लिएकहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए“
के मेयार पर मैंने अपने इन शब्दों को कसने की गुस्ताखी की थी कि-
”रोशन वक्त के चिरागों से घर भी तेरा नहीं
रहातेरा दावा तो था कि एक भी घर में अंधेरा नहीं रहा“
मगर क्रान्ति उस समय आनी भी थी तो मेरे घर के पते पर तो नहीं ही आनी थी और उस समय की उम्र,हालात,माहौल वक्त भी चाहता था कि थोड़ा सा रोमानी हो जायें। तो अपने राम हो लिए और कोई दामन, शाना, कंधा, बाजू न मिला तो ग़ज़लों, नज़्मों के शाने पर ही सर रखकर रो लिए। फिर जब कोई हमदर्द, हमराह मिला भी तो तब तक अपनी बात ग़मे-जानाँ से निकल कर ग़मे-रोजगार तक आ गयी थी,और फिर ग़मे-रोजगार से निकल कर ग़मे-दोराँ तक। इसलिए अगर ग़मे-रोजगार या ग़मे-दोराँ से निकल कर ग़मे-जानाँ ने कभी पकड़ा और यह लगा कि दिल की दुनिया के मामले में अपना सब कुछ खत्म हो रहा है तो हताश होने से पहले ही बशीर बद्र साहब के यह शब्द मुझे हिम्मत बंधा रहे थे, कि –
”अब मिलोगे तो कइ लोग बिछुड़ जायेंगे,
इन्तेजार और करो अगले जनम तक मेरा“
और इसी तरह हिम्मत बँधाते और होंसला देते बात दुष्यन्त से निकल कर बद्र साहब तक आ गयी थी। फिर कैफी आजमी आये।फिर फैज,निदा फाजली,कतील शिफाई , परवीन शाकिर की शायरी ने मुतास्सिर किया। मगर इतने सारे वटवृक्षों की छाया से गुजरने के बाद मुझमें इतना हीनता बोध आ गया था कि मुझे लगा कि या तो इनसे कुछ अलग लिखो या लिखना बन्द ही कर दो,तो इनसे अलग दिखने/लिखने की कोशिश मैं मैंने पुनरावृत्ति, प्रत्युत्तर, क्रमश:, जैसी नज्में लिख कर एक अलग भाव, भाषा, शैली गढने की कोशिश की। पता नहीं यह कोशिश कामयाब रही या नहीं, बस इतना मालूम है कि जब भी इन्हैं अपनी आँखों के नीचे से गुजारता हूँ तो मेरे मन को अच्छा लगता है.
           हाँ, मुझे यह भी पता है कि जो कुछ भी लिखा जाता है उस की एक सामाजिक प्रतिबद्धता होती है और मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई झिझक नहीं है कि बहुत सी जगह इस लिखे हुए में से बहुत कुछ उस सामाजिक प्रतिबद्धता के मेयार पर खरा नहीं उतरता। मगर जिस तरह हमारा बचपन कितना भी खराब या गलत रहा हो हम उसे हमारे वर्तमान से काट कर अलग नहीं कर सकते उसी तरह एक सामाजिक सोच के परिपक्वन और परिवर्धन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में जो कुछ भी मैंने लिखने की कोशिश की है (हो सकता है उसमे कुछ गलत हो या स्तरहीन ) उसे मैं लाख नापसन्द करने के बाद भी अपने वर्तमान लेखन से काट कर अलग नहीं कर सकता क्योंकि जब भी फुरसत पाकर यादों की रौशनी में इसे पढने बैठता हूँ तो महसूस करता हूँ कि ज़िन्दगी किस तरह धीरे धीरे अपनी आँखें खोलती है। जैसी भी है ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है और मुझे खुशी है कि मेरे पास ज़िंदगी की खूबसूरती को समझने व महसूस करने वाली भाषा है. और इस भाषा के साये में बैठकर आज जब में अपनी नज़र से अपने हालात और हासिल किये गये मुकाम को देखता हूँ तो मुझे अपनी कामयाबी भी उतनी ही अज़ीज लगती है जितनी की नाकामयाबी.आज मैं जो हूँ ,भले ही उससे संतुष्ट नहीं हूँ मगर जहाँ मैं हूँ उसे स्वीकार करता हूँ क्योंकि इस सारे अफसाने में अगर मैं ही नहीं होता तो शायद कुछ भी नहीं होता।इसलिए मेरे होने की वजह से,अच्छा या बुरा जो कुछ भी मेरा हासिल है वह बतर्ज जाँनिसार अख्तर यह सोच कर स्वीकार्य है, कि –
”जमीं को आसमाँ से मिलाने की हवस थी हमको,
काम कुछ अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ“
और वैसे भी कहते हैं कि जो कुछ भी होता है वह अच्छे के लिए ही होता है तो यह सब जो कुछ भी आज जिस तरह से आँखों के सामने उतरा हुआ देख रहा हूँ (जो कि मेरी लाख कोशिशों के बाद भी उस समय सामने नहीं आ सका था जब कि इस की सबसे अधिक जरूरत थी) शायद इतनी जल्दी तो इस तरह से आँखों के सामने इस रूप में नहीं होता अगर में किशनगढ़ से स्थानान्तरित होकर आबूरोड नहीं आया होता। आबूरोड जैसे नीरस और बेकार शहर में सुखवाल साहब के आधे अधूरे कम्प्यूटर ज्ञान ने अगर मुझे भी कॉलेज के कम्प्यूटर के ‘की-बोर्ड‘ पर उंगलियाँ चलाना नहीं सिखाया होता तो यह सब किसी कागज की कब्र से स्याही की कैद को तोडकर कभी भी बाहर नहीं आ पाता और अब जब सामने आ ही गया है तो इसे देखकर,पढ़कर के अपनी पीठ थपथपाने के दुस्साहस के साथ लगता है कि-‘‘सही जा रहे हो भाईजान ! बस लगे रहो !!
            किसी भी किताब से पहले अपने अज़ीज़ों को नाम लिखकर, उनका शुक्रिया अदा कर, उन्हें याद करने की गैरजरूरी रस्म अनिवार्य तौर पर एक परम्परा की तरह अगर मुझे भी निभानी पड़े तो मैं उन का नाम लेना चाहूँगा ,जिनका नाम मैं लाख चाहने के बावजूद भी अपनी शौहरत और उनकी रूसवाई के डर से इस एतराफ़ में भी शामिल नहीं कर सकता. मगर मैंने कहा ना कि यह सब जो लिखा गया है उसे मैं पढूंगा या वो जो मुझे पढ़ता है,पढ़ सकता है या पढ़ने की कोशिश कर रहा है तो जो मेरे लिखे हुए और मेरे इतना करीब है उसके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा. जो है, जैसा है, बन्दा हाजिर है बस.............!!

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