बुधवार, 14 दिसंबर 2011


जो कुछ है बस उसमें गुजर क्यों नहीं होता ।
होता है इधर कुछ तो उधर क्यों नहीं होता ।।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011


मैं अभी-अभी उम्र की 36 वीं इमारत से गिर कर घायल हो गया हूँ
और तुम चाहो तो
अपने एकान्त में 
अपना अठठाइसवां बसन्त बुन सकती हो
मैं पीडा सहन करता हूँ 
असहनीय होने पर चीखता हूँ
तुम कहाँ हो ! कैसी हो !
क्या तुम इसे सुन सकती हो ?

इस हादसे के बाद ही मैंने जाना 
कि प्यार अस्पताल के बिस्तर पर 
अपाहिज की तरह तीन महीने तक सोना था
वहाँ 
जिन्दा रहने की सिर्फ संभावनायें थी 
या उनके बीच में जिन्दा होना था

अपनी जिम्मेदारियों को 
मैं उसी मेयार पर आंकता था 
जहाँ वह सारी आत्मीयता 
रोज नन्ही आलपिनों पर टांकता था


मेरे बाद में मेरी विरासत में जो होना था
मुझे 
उसी अन्देशे के साथ तमाम उम्र सोना था

खामोशी सजा की तरह थी
अस्पताल के बिस्तर पर 
तन्हा-तन्हा दिन गुजारते हुए
तभी तो मैंने जाना कि 
कि उम्र का जो सबसे जरूरी काम था
उस पर, मेरा नहीं मेरी बीवी और बेटी का नाम था

उम्र जहाँ पलकें खोले ऊंघ रही थी
वहाँ
मौत मेरी सांसों को सूंघ रही थी
और मैं जीना चाहता था

मैं होंट सिले जाने की हद तक चुप था 
और आसमान की तरह शान्त 
मैं जल रहा था 
कि तर्क का कोई भी बिन्दु 
मेरी चेतना के पास से नहीं गुजरता है 
इसे सिर्फ वही व्यकित 
महसूस कर सकता है 
जिसके पास वाले बिस्तर पर 
रोजाना कोई  मरीज मरता है 

डाक्टर चुप था और जानता था 
कि बोलते ही उसका चेहरा 
अपने अभिजात्य से गिरकर 
सामने वाले की जेब में समा जायेगा
वार्ड ब्वाय 
इस चिन्ता में गुम था 
कि आज नर्सिंग  असिस्टेन्ट
उससे ज्यादा पैसे 
एक ही रात में खा जायेगा

दोस्त थे,महीने भर बाद आते थे
मैं कल फिर आऊंगा
यह कहकर 
एक उम्र के लिए चले जाते थे

मैं था, जो चुप था ,बेबस था
कमर पर 'पिक्सेटर' लगा था
जिससे मैं न चल सकता था
मुंह में तार बंधे थे
जिससे न में बोल सकता था
सिर्फ अंधेरी रातों में
तन्हा लेटा,रोता था
ओर यादों की गठरी को खोल सकता था
और उसे खोलकर के टटोल सकता था
न मेरे पुण्य मेरे साथ थे
न मेरे पाप मेरे हाथ थे
मैं अपने गुनाहों को हिसाब कर रहा था 
लोग मुझे जिन्दा समझ रहे थे 
और मैं,रोज ही वैचारिक मौत कर रहा था

मैं अपनी बेटी के चेहरे पर उत्साह देखता हूँ 
और बीवी के चेहरे पर चिन्ता
दोनों मेरे से वाबस्ता है पर
बेटी सच नही जानती !
और बीवी सच नही मानती !!

मेरी जिम्मेदारियों मुझे जिन्दा रखे थी
मेरी बीवी, मेरी बेटी
मुझे मेरे और भी ज्यादा करीब लगते थे
मेरे माँ-बाप ,मुझे और भी ज्यादा गरीब लगते थे

दोस्तों की फेहरिस्त बहुत लम्बी थी
कुछ आये कुछ आ न सके
कुछ आने की 
और 
कुछ न आने की सही वजह भी गिना न सके
कुछ के पास फुरसत न थी अपने काम से 
और कुछ
बिदक से जाते थे मेरे नाम से 

पर सच तो यह है कि 
प्यार उस अस्पताल में 
चौथे दरवाजे के पास
तीसरे मरीज की बगल में 
अपना मुंह ढंक कर के सो जाता है 
जो अनास्था में जागता है 
अविश्वास में उठता है 
और 
अनिश्चय में खो जाता है