यह जनवरी ऐसे ही नहीं जाने दूंगा
.....उन
दिनों नेट पर कहीं पढ़ लिया था कि 'ब्लॉग'
पर यह होता है ....'ब्लॉग' पर वह
होता है....'ब्लॉग'
पर आप यह कर सकते हैं....'ब्लॉग' पर आप
वह कर सकते हैं ....मैंने उसी धुन में,
जूनून में,
या ज़िद में और कुछ किया या नहीं किया पर अपने लिए
एक अदद 'ब्लॉग' ज़रूर बना
लिया था. उस समय तक कृति देव 'फॉन्ट'
में लिखी हुई अपरिपक्व, बचकानी तुकबन्दियों से मेरा कंप्यूटर भरा पड़ा था, बस नेट
के माध्यम से ही 'फ़ॉन्ट कनवर्टर' की मदद
ली गई और 'ब्लॉग'
पर उसी में से बहुत कुछ फैला दिया गया. पहले-पहल
यह सब अच्छा लगा पर जल्दी ही मैं इस गोरखधंधे से भी बोर हो गया. उस समय, जीवन और
ज़माने में कुछ भी नहीं बदल पाने की पीड़ा और अपने इन प्रयासों की असफलता का जो
अफ़सोस मुझ पर हावी था, वही रचनात्मक सन्नाटा बनकर 'ब्लॉग' पर भी
पसर गया था. यह वह दौर था जब कहने को बहुत कुछ था पर कैसे कहना है, यह नहीं
पता था. बस सोचता रहता था कि कैसे कहूं ?
किससे कहूं ?
और क्यों कहूं ? किस लिए
कहूँ ? ऐसे
बहुत सारे सवालों से मैं हर दिन जूझता रहता था. यह भी डर लगता था कि अगर मैं लिख
भी दूँ तो इसे कौन पढ़ेगा ? और कौन पढ़ना चाहता है ? जो मेरे
बचपन के लंगोटिया यार हैं उनमें से 'ब्लॉग'
तो बहुत दूर की बात हैं, स्मार्टफोन
या फ़ोन पर भी नहीं थे. जो दोस्त एक दिन साथ में अख़बार बांटता था, वह आज
भी अख़बार ही बाँट रहा हैं. जो साथ में एक दिन मजदूरी करता था, वह आज
भी मजदूरी ही कर रहा हैं. ऐसे समय में आप चुप रहकर अपने और उनके साथ गुनाह कर रहे होते
हैं और कुछ गलत बोलकर पाप के भागीदार बनते हैं. इसलिए उस वक़्त चुप रहना ही मुनासिब
था.
बहुत
मुश्किल होता हैं उन लोगों के बारे में कुछ भी लिखना जिनके बारे में आप यह पहले से
ही जानते हैं कि वह आपके इस लिखे को कभी नहीं पढ़ पाएंगे. इस वज़ह से आपकी उन
दोस्तों के प्रति रचनात्मक ईमानदारी और जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती हैं. यह भी हमारी
रचनात्मक प्रतिबद्धता ही मानी जा सकती हैं की हम उनसे अलग कुछ लिख भी नहीं सकते
थे. उस समय तक इतना तो समझ में आ ही गया था कि जिनको आप अच्छे तरीके से जानते हो, उनके
बारे में लिख कर ही, लिखने के साथ इन्साफ किया जा सकता है. वैसे भी
तेजी से दौड़ते इस कालखण्ड में किसके पास समय है इस तरह की बातें पढ़ने/सुनने के
लिए. इसलिए उस दौर में चुप रहना ही लाज़िम था. पर कुछ था जो उबल रहा था, जो बाहर
आना चाहता था, जो आप को बेचैन कर रहा होता है .....पर कभी-कभी
ऐसा भी होता हैं की भरपूर कोशिशों के बाद भी आप समझ ही नहीं पाते कि बात क्या कही
जानी चाहिए और कहाँ से कही जानी चाहिए.घूम फिर कर बात "शुजा बाबर" के
उसी शेर पर आकर अटक जाती थी कि
"कहां
से इब्तिदा कीजे, बड़ी मुश्किल है दरवेशों,
कहानी
उम्र भर की है,यह मजमा रात भर का है !
मैं भी
यही सोचता रहता था कि उम्र भर की इस 'लम्बी कहानी'
को इस 'रात भर'
के 'ब्लॉग'
में कैसे समेटा जा सकता है. एक ऐसे वक्त में कुछ
भी बोलना, वैसे भी
बहुत ज्यादा जोखिम का काम माना जायेगा जहां पर बात-बात में खामोशी को हिदायत की
तरह इस्तेमाल किया जाता हो. जहाँ आपके लिखे हुए शब्दों के बीच में बची खाली जगह के
भी मनचाहे मायने निकाले जा सकते हों. इस दौर मैं जब कि आप लाख कोशिशें करने के बाद
भी यह पता नहीं लगा सकते कि लोग खौखले हैं,
इसलिए दौगले हैं या दौगले हैं इस वज़ह से खौखले
हैं. एक ऐसे वक़्त में जब बोलने और लिखने की वज़ह से किसी का होना हमेशा के लिए
मिटाया जा सकता हो वहां पर कोई भी बोलने का जोखिम ले ही क्यों ? पर मैं
जान गया था कि इतना सब कुछ होने के बाद भी यदि और कुछ बचे या नहीं बचे तो भी सिर्फ
और सिर्फ बचे रहेंगे शब्द. हम रहें या नहीं रहें पर शब्द हमेशा रहेंगे. शब्द
किसलिए बचे रहेंगे ? क्योंकि इस बीत रहे समय के साक्षी सिर्फ और सिर्फ
शब्द ही हैं. इसलिए मैंने सोच लिया था और खुद से वादा किया था कि चाहे कुछ भी हो
जाये पर इस महीने इस 'ब्लॉग'
पर कुछ न कुछ जाना ही जाना है. मैंने 'ब्लॉग' देखा तो
पाया कि इस पर अंतिम पोस्ट राजकीय महाविद्यालय में एम.एससी. के दिनों को याद करते
हुए 3 जनवरी 2012 को लिखी गई थी. उस बात को छः साल बीत चुके हैं. यह
जनवरी 2018 है और
मैंने ठान लिया है कि मैं इस साल की इस जनवरी को ऐसे ही नहीं जाने दूंगा. उसी
कोशिश के कारण मैं आप से मुख़ातिब हूँ.
अक्सर
इन बीते 5-6 सालों में होता यूं था कि हर बार एक जनवरी को नया साल प्रारम्भ होने
पर या सरकारी कागजों में जन्मतिथि के नाम पर अंकित किसी तारीख के फेसबुकिया
नोटिफिकेशन पर हम "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" की एक बहुत मशहूर नज़्म को
च्युइन्गम की तरह चबाकर फेसबुक की वाल के किसी कोने पर यह लिखकर उगल दिया करते थे
कि "चंद ही रोज़ मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़". थोड़ा सा हेर-फेर कर इस
नज़्म के 'चन्द ही
रोज' को
महीनों-सालों की भूलभुलैया में उलझा दिया जाता था. यह सोचकर कि एक न एक दिन तो हम
सभी को यह चुप्पी तोड़नी ही होगी. मगर इतना करने के बाद भी हम तय नहीं कर पाते थे
कि ख़ामोश रहने के यह चंद रोज़ कितने हैं ?
अनचाहे ही यह चन्द रोजों का सफ़र अनगिनत महीनों, सालों
तक खिंचता चला गया था. जिंदगी और जमाने में जो कुछ भी गुजर रहा था और घट रहा था वह
क्या था, क्यों
था यह तो पता नहीं था पर इतना पता था कि जैसा हम चाहते और सोचते थे, वैसा
नहीं था. शायद इसी कारण एक उदासी थी जो इस हालात से उबर नहीं पाने की पीड़ा के
कारण अंदर तक उतर जाती थी. एक अवसाद था जो अन्दर तक घर कर लेता था. शायद ऐसे ही
किसी नाजुक समय में, यह फैसला ले लिया था कि अगर कुछ कहने को नहीं
होगा तो चुप रहना ही बेहतर होगा. और इसी कारण से यह अनचाही चुप्पी इस 'ब्लॉग' पर भी
पसर गई थी.
इस सन्नाटे को ध्वस्त करने का काम कई घटनाओं और
व्यक्तियों ने किया था. भाई 'त्रिपाठी'
गाहे-बगाहे न सिर्फ टोकता रहता है बल्कि
सार्वजनिक रूप से ऐसे निजी बयान भी देता रहता है कि-"मैं एक 'ब्लॉग' की
भ्रूण हत्या के दोषी को जानता हूं ...और मैं यह भी जानता हूं कि इस 'ब्लॉग' का
हत्यारा कौन है" और इतना सुनने के बाद भी इधर जो बंदा मौन है वह जानता है, पूरी
तरह से समझ रहा है कि उसे ना जाने किस-किस तरीके से उकसाया जा रहा है. कि ....हे
पार्थ ! उठा गांडीव !! खींच प्रत्यंचा !!! कर प्रहार ....मत हार ...पर न वो अच्युत
है न मैं अनघ ...इसलिए उनके सारे प्रयत्न विफल रहते थे. इधर कोई था जो उठने से
पहले ही गिर जाता है. जो बनने से पहले ही बिगड़ जाता है. जो जन्म लेने से पहले ही
मर जाता है. या कि जो अभी तक अजन्मा है.
भाई 'सतीश जी'
भी अक्सर यही शिकायत करते हैं कि "हर कोई
कहीं न कहीं व्यस्त हैं. कोई किसी चिड़िया को लेकर फेसबुक पर उड़ रहा हैं तो कोई
प्लैंकटोन पर पी.एचडी. उतार रहा है. कोई अपना शोध पत्र पढ़ने चार देशों मैं जा चुका
है और अब पांचवे देश में जाने की तैयारी पर हैं. पर तुम हो कहां ? कुछ
करते क्यों नहीं ? कुछ दिखते/लिखते क्यों नहीं ?" और मैं हूँ की इस सारे तमाशे में मिसफिट हूँ. मेरी हालत गालिबन
वही हो जाती हैं कि "इमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र" और जो
इमां(प्राणी शास्त्र) वाले साथी है वह कह देते हैं कि "रहने दो यार ! तुमसे न
हो पायेगा" और कुफ्र(साहित्य) वाले तो मुझे समझते ही 'घुसपैठिया' हैं.
मैं हूं कि नहीं हूं, मैं नहीं हूं कि मैं हूं. मैं इसी उधेड़बुन में
खो कर रह गया हूं. इमां(प्राणी शास्त्र) है जो मेरी आजीविका है. और कुफ्र(साहित्य)
मेरी ज़रूरत है. इन सबके बीच मैं हूं कि रचनात्मक प्रसव पीड़ा से मुक्त ही नहीं हो
पाता. भविष्य में कुछ लिखने के लिए न जाने कौन-कौनसे माध्यमों से इतना 'इनपुट' ले लिया
गया हैं कि उसके बोझ के कारण 'आउटपुट'
निकल ही नहीं पा रहा हैं. सामान्यतया 9 महीनों
में किसी स्वस्थ महिला का भी प्रसव हो ही जाता हैं पर मेरे
केस में 9-18-27 तो क्या पूरा नो का पहाडा कितनी ही बार दोहराया जा चुका था पर
रचनात्मक प्रसव पीड़ा से हर दिन पीड़ित होने के बाद भी कुछ भी ब्लॉग पर जन्म नहीं
ले पा रहा था. पर ऐसा हो क्यों रहा था ?
आपके
आस-पास जो कुछ भी घटित होता हैं आप उससे प्रभावित होते हैं, जो आपकी
संवेदना को छूता हैं और आप उसके बारे में कुछ भी कहना चाहते हैं, बोलना
चाहते हैं, बताना चाहते हैं. जब आप अपने प्रिय लेखक 'राही
मासूम रज़ा' के गुज़र जाने के बाद आप किसी मासिक साहित्यिक
पत्रिका में उन्हीं का यह वक्तव्य पढ़ लेते हैं कि "मुझे दुःख हैं कि मेरे
लेखन से कुछ भी नहीं बदला" तो फिर लिखने के औचित्य पर ही सवाल उठाने लगते
हैं. आपको कुछ भी लिखना बेमानी लगने लगता है. कुछ बुनियादी सवाल सर उठाने लगते हैं
कि "क्या लिखने से कुछ बदलता है ?
क्या आपका लिखा किसी के लिए पढ़ने लायक हैं ? क्या
आपका लिखा किसी के पढ़ने के बाद उसकी ज़िन्दगी पर कोई प्रभाव डालता हैं ?" या कहीं ऐसा तो नहीं कि बेसिकली आप "सेंटीमेंटल इडियट
टाइप" के इंसान होते हैं और आप यह सारा साहित्य-वाहित्य पढ़कर इस पढ़े गए
साहित्य में किसी अपने ही जैसे "सेंटीमेंटल इडियट टाइप" इंसान को खोज
रहे होते हैं. आप की सारी साहित्यिक अभिरुचि पढ़ने-पढ़ाने के बहाने इस पढ़े गए
साहित्य में आपके जैसे ही किसी दूसरे को खोजने की अंतहीन मुहिम का हिस्सा बन जाती
है. अपने जैसा कोई किरदार तलाशने की भूख ही आपको साहित्य में ले जा रही होती है और
अनायास ही आप वहीं चले जाते हो और अपने जैसे किसी दूसरे को पढ़े जा रहे साहित्य में
खोज रहे होते हो. पर इस का जवाब भी किसी अन्य मासिक साहित्यिक पत्रिका में 'असीमा
भट्ट' ने दिया
था. कि कोई तो होगा जो आपके लिखे को अपना कह सकेगा, महसूस
कर सकेगा और उससे वैसे ही हिम्मत प्राप्त करेगा जैसे आपने किसी न किसी का लिखा हुआ
पढ़कर प्राप्त की है. आख़िरकार आप कुछ लिखे हुए शब्दों की इसी ताकत के कारण इस
दुनिया को बेहतर तरीके से जान पाते हो. आप "धूमिल" से लड़ना सीखते हैं, "दुष्यंत" से आंदोलित होना. आप "पाश" से खुद को
बेहतर तरीके से समझते हैं और "अदम गौंडवी" से इस दुनिया को. आप 'राग
दरबारी' पढ़कर जी
खोलकर हंस भी सकते हैं और 'आधा गाँव'
पढ़ कर छुप-छुपकर रो भी सकते हैं. आप बहुत सी बार
तो लोगों को भी उनके बारे में लिखे हुए के कारण ही ज्यादा अच्छे तरीके से समझ सकते
हैं. जैसे कि आप "आलोक धन्वा" को बेहतर जानते हो यदि आप "असीमा
भट्ट" को पढ़ लेते हो. आप "नामदेव ढसाल" को बेहतर समझ सकते हो यदि
आप "मल्लिका अमर शेख" को पढ़ लेते हो. आप 'मणिकर्णिका' और 'मुर्दहिया' पढ़कर
ज़िन्दगी से भर उठते हैं और 'जूठन'
पढ़कर गुस्से से उबलने लगते हो. ये किताबों में
लिखे शब्दों की ही ताकत होती हैं जो कुछ भी पढने के बाद आपको शांत नहीं रहने देती.
यह अटल सत्य हैं कि किसी भी किताब को पढने के बाद आप वह तो कदापि रह ही नहीं पाते
जो कि उस किताब को पढने से पहले होते हो.
इसलिए
इतना तो बहुत पहले ही तय हो गया था कि अपने आस-पास जो कुछ भी घटित हो रहा हैं उसे
गौर से देखना हैं और इस तरह से देखना हैं कि यदि एक दिन इसके बारे मैं कुछ लिखना
पड़ जाये तो कलम कमज़ोर नहीं पड़े और हाथ नहीं कांपे. इसलिए ज़माने और ज़िन्दगी में जब
भी मौका मिलता था हम हर खेल को या तो करीब से या उस खेल के भीतर घुस करके ही देखते
थे.स्कूल के दिनों से हम गाँव के खेलों में प्रवीण थे, पारंगत
थे. गिल्ली-डंडा, मारदड़ी'
गुलाम-लाकड़ी हमारा प्रिय शगल था. उस समय हम अपने
वर्तमान में भी भूतकाल या प्राचीनकाल को जी रहे थे. हमारे आस-पास होने वाली किसी
भी घटना के प्रति हमारी जिज्ञासाएं इतनी बढ़ जाती थी की कभी-कभी तो यह 'बिल्ली
को ही मार देती थी'. हमने अपनी-अपनी यादों के 'डीप-फ्रिज' को इतना
ज्यादा बड़ा कर लिया था कि जो कुछ भी हमें भविष्य में दस्तावेज़ की तरह अंकित करने
के लायक लगता था उसे हम तुरन्त ही इस 'डीप-फ्रिज'
में करीने से सजा देते थे. पर जो कुछ कहने लायक
था उसे कहने की कोशिशों और नहीं कह पाने के दुःख के बीच करीब-करीब 5-6 साल
निकल गए. इस दौरान लग गया था कि भीतर ही भीतर कुछ टूट रहा है. अन्दर ही अन्दर कुछ
उबल रहा है. बतर्ज़ दुष्यंत कुमार कि
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना हैं !
और सच
बात तो यह कि इस बनते जाने की पीड़ा और दौर में कुछ भी क्षणिक नहीं था.....भावावेश
में नहीं हो रहा था. हम अपने-अपने गाँव और कस्बों को छोड़कर शहर आये थे और सोचते थे
कि एक दिन हम वापिस अपने-अपने गाँव और कस्बों में लौटेंगे और सारे घर को बदल कर रख
देंगे. पर हम नहीं जानते थे कि कुछ बनने और कोई मुकाम हासिल करने की जद्दोजहद में
शहर ने हमको बदलना शुरू कर दिया था. हम आँखों में ख़वाब, दिल में
उमंग और अपनी ज़िद के चलते अपने-अपने गाँव और कस्बों से निकल कर पढ़ने और जीवन में
आगे बढ़ने के लिए बड़े शहरों में आ तो गए थे पर हम इस नयी आबोहवा में 'मिसफिट' थे. हम 'पीयर-प्रेसर' में झूठ
पर झूठ बोलते चले जा रहे थे. हम जानते थे कि यह झूठ बोलना गलत है पर उस भीड़ में
कुछ नहीं होने का 'टैग'
हमसे ये गुनाह करवा ही लेता था. हम शहर की गलियों
और कॉलेज के कोरिडोर में खुद के भविष्य को तलाश कर रहे थे. उस शहर में चाय की उस
होटल पर एक चाय के बदले तीन अख़बार पढ़ने का लालच हमें चायवाले की गालियों और गुस्से
को भी चाय के साथ पीना सिखा गया था. हम सब तरफ से नकारे जाने, ठुकराए
जाने और दुत्कारे जाने के लायक थे. क्लास में सबसे पीछे की पंक्तियों में सबसे
छुपकर बैठना और 'लो प्रोफाइल'
में रहना हमारी नियति थी. इस प्रक्रिया में हम
धीरे-धीरे कुछ और ही बन रहे थे. हम बोलना नहीं तो कम से कम सुनना तो सीख ही रहे
थे. हम किसी बात को ढंग से 'कहना'
नहीं जानते थे पर ढंग से 'पढ़ना' तो सीख
ही रहे थे. हम अपनी सारी कोशिशों और बेवकूफियों के बाद ज्ञान की इस प्रारंभिक
अवस्था को प्राप्त करने की तरफ अग्रसर थे कि हमें कुछ नहीं आता था. अपनी सारी अथक, अथाह, असीमित
कोशिशों के बाद हम सिर्फ इतना सा जानने की तरफ बढ़ रहे थे कि हम कुछ नहीं जानते थे.
अगर मैं
यह कहूँ की शहाबुद्दीन ने कहा था कि "नाम में क्या रखा हैं" तो आप
तुरन्त भूल सुधार कर देंगे की यह शहाबुद्दीन ने नहीं बल्कि "शेक्सपियर"
ने कहा हैं. यही तो मैं आपको समझाना चाहता हूँ कि आप शेक्सपियर के कहने पर मत
जाइये और सीधा-सीधा मान लीजिए की नाम में बहुत कुछ रखा हैं. आप यदि शेक्सपियर के
एक प्रसिद्ध वाक्य को किसी गुमनाम शख्स शहाबुद्दीन का नहीं मान सकते और तुरंत सही
कर देते हैं तो इसी एक बात से साबित हो जाता हैं कि नाम मैं बहुत कुछ रखा हैं. और
सच मैं हमारे नामों मैं बहुत कुछ रखा हुआ था. हम खानपुरा-श्रीनगर, हीरापुर, लाखेरी, लुहाकना
खुर्द, देवली, नवलगढ़
जैसे गाँवों या कस्बों से निकले थे. हमारे महाविद्यालय के प्रवेश पत्रों मैं पते
के नाम पर हमारे नाम के आगे गुर्जर मोहल्ला,
घोसी मोहल्ला,
चमार मोहल्ला,
खटीक मोहल्ला,
लिखा होना तय था. हम और कुछ समझे या नहीं समझे पर
इतना समझ गए थे कि नाम में बहुत कुछ रखा हैं इसलिए हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे थे
कि हमारे पते मैं नाम के बाद इन मोहल्लों के बजाय साकेत कॉलोनी, पटेल
नगर, शास्त्री
नगर, तिलक
नगर, प्रताप
नगर जैसा ही कुछ लग जाये. हम सीधे-साधे जयराम,
सियाराम,
लालचंद,
बजरंग,
भगवान जैसे नामों के सरलीकरण से इतना दुखी थे कि
हमने अपने बच्चों के नामों में एक तरह से भाषिक क्रांति ही कर दी थी. हमने अपनी
बचकानी कोशिशों से बच्चों के नामों को आदित्य नीलाभ, अनुरिक्थ
सुमन, अतीश, अदिति, जेनिल
नुमा आभिजात्य की कीलों पर टांग दिया था. हमारे लिए अभीप्सित थोथा और खोखला
अभिजात्य बोध हमें बदल रहा था और इतना होने के बाद भी हम क्यों इस कटु सच से
अनभिज्ञ थे कि इन सब प्रपंचों से कुछ बदलने वाला नहीं था.
हम में
से हर कोई अपने अधूरे प्यार और अपनी अतृप्त इच्छाओं को पाने को आतुर था. हम
अपनी-अपनी आंखों में सपने, मन में ज़िद और जेब में गरीबी लिए शहर की सड़कों पर
आवारा से डोल रहे थे. हम जिन भी शहरों मैं पढ़ने आये थे वहां अपनी
असीमित इच्छाओं और स्वप्न संघर्षों की राह टटोल रहे थे. हम में से हर कोई किसी न
किसी कामयाबी को छू लेना चाहता था. हम में से हर कोई कामयाब इन्सान बनकर
गेरू-गोबर-कढ़ी-झीकरे और काली मिटटी से लिपे-पुते केलूपोश वाले कच्चे मकान के
सामने बने उसी आंगन में वापस लौट जाना चाहता था, जहां
हमारी नाळ गड़ी थी. क्या भ्रूण विज्ञान के सनातन सिद्धांतों के अनुसार जन्म के साथ
ही मां के गर्भाशय व पिता के अंश का कुछ हिस्सा 'स्टेम
सेल' के रूप
में उस आँगन में गाड़ दिए गए 'प्लेसेंटा'
में बाकी रह गया था जो हमें चीख-चीख कर वापिस उसी
जगह आने के लिए पुकार रहा था कि "घर आजा परदेसी तेरी याद सताए रे". क्या
हमारी क़िस्मत में अपने ही घर और गांवों-कस्बों में परदेशी बनकर लौटना लिखा था.
वहां, जहाँ एक
नहीं बल्कि कई आंखें हमारा इंतजार कर रही है कि हम आएंगे और उनके सारे दुख दर्द
दूर कर देंगे. हम नोटों के थैले भर कर लाएंगे और उनकी दरिद्रता को समाप्त कर
देंगे. हर एक नज़र हमसे उम्मीद करती थी. हर एक चेहरा हमसे आश्ना था.
हम अपने
आधे-अधूरे सपनों के साथ जिंदगी में कुछ बेहतर पाने की जद्दोजहद में जितना हमसे हो
सकता था उससे भी ज्यादा करने की कोशिश कर रहे थे. हम में से कुछेक जानते भी थे कि
इतना लड़ने और जीतने की कोशिश करने के बाद हम हार जाएंगे क्योंकि हार जाना हमारी
नियति होगी. हम जानते थे कि हजारों वर्षों से चली आ रही सामाजिक असमानता के कारण
अपने साथ के प्रतिस्पर्धी से हम वैसे ही दो-चार पीढ़ी पीछे चल रहे थे. हम जानते थे
कि अपने-अपने समय, समाज और सच को बदलने वाली मुहिम के हम अकेले
योद्धा थे और यही अकेले खड़े होने और लड़ने की प्रवृति हमारे हारने का मुख्य कारण
बनने वाली थी. हम जानते थे कि जिस दिन थके-टूटे-हारे हम जार-जार रोएंगे उस दिन कोई
हमारे आंसू पोंछने नहीं आएगा. हम यह भी समझ गए थे कि हम जिस दिन उदास होंगे उस दिन
कोई हमारे सिर पर हाथ फेरने के लिए नहीं आएगा. हम जानते थे कि कोई यदि जश्न मनाने
के लिए हमारी सफलता का इन्तेज़ार कर रहा है तो कोई ऐसा भी है जो हाथ में नमक लेकर
हमारे पराजित मन के फूटे हुए छालों के लिए प्रतीक्षातुर हैं. हम सफलता या
सम्पन्नता के 4 गुणा 100 मीटर वाले 'रेसिंग ट्रेक'
पर अपनी कोशिशों से पहले 'लैप' में
सबसे आगे थे, पर यह नहीं जानते थे की आगे वाले 'लैप' के लिए
हमारे हाथ से सपनों का 'बेटन'
लेकर दौड़ने के लिए परिवार में से कोई खड़ा नहीं
मिलेगा. हम इस दौड़ मैं आगे रहकर भी पिछड़ जाने का दंश भोग रहे थे. हम जानते थे कि
शहरों में बस जाने के बाद भी हम गांव के उज्जड देशीपन को हमारी लाख कोशिशों के बाद
भी अपने-अपने चेहरों से नहीं मिटा पाएंगे. आर्थिक अभावों और परिवार में सबसे
ज्यादा पढ़े लिखे होने के तमगे ने हमें,
हमारी ही शादी में 'दूल्हे' और 'दूल्हे
के बाप' की
दोहरी भूमिका मैं उतार दिया था, और हम ये 'डबलरोल'
निभाकर भी दुखी थे. उस 'गर्वीली
ग़रीबी' को
झेलने के बाद हम अपने आप को इतना असुरक्षित महसूस करते थे कि हमने अपने-अपने जीवन
साथी के चुनाव में सिर्फ़ और सिर्फ़ इस एक बात का पूरा ध्यान रखा था कि हमारे नहीं
होने पर भी वह हमारे बच्चों को आराम से पाल सके. 'जितेन्द्र
मारोटिया' के
शब्दों में कहें तो हम 'मारूति कार के इन्जन' से पूरा
'मल्टीएक्स़ल
ट्रोला' खींच
रहे थे. हम गरीबी को इतना झेल चुके थे कि हम 'रिबेलियन'
होने और देखने की हद तक उज्जड थे और हम जानते थे
कि हमारी नेपथ्य वाली पृष्ठभूमि हमें कभी भी मंच पर नहीं आने देगी. हम जीवन और
ज़माने के जलसाघर मैं परदे के पीछे छिप जाने के लिए अभिशप्त थे.
क्या हम
अंततः लौट कर उस 'गुर्जर मोहल्ले' की
उन्हीं गलियों या पगडंडियों में खो जायेंगे जहाँ कि कच्ची जमीं को सरकारी
प्रक्रिया ने पहले सीमेंट गिट्टी और फिर गिट्टी-कोलतार में हमारे बचपन की यादों के
साथ ही दफ़न कर दिया हैं. जहाँ पिछले बीस-पच्चीस सालों में ग़रीबी और बेरोज़गारी ने 'सत्यनारायण
गुर्जर' जैसे
गबरू जवानों को खोखले बूढों में तब्दील कर दिया हैं. क्या उस गुर्जर मोहल्ले के 'भवानीपुरा' और 'देवपुरा' के
नामिक विभाजन अभी भी बदस्तूर वैसे ही बने होंगे. हम साहित्य को इतना आत्मसात कर
लेंगे कि 'आधा गांव'
के 'फुन्नन चा'
को गुर्जर मोहल्ले के 'गुल्या
कीर' में
खोजते रह जाएंगे. यह कोई नहीं जानता कि हम जब यह जानेंगे कि हमारे साथ खेलने वाला
कोई बचपन का साथी उसी क़स्बे में गुमनाम लाश की तरह जला दिया जायेगा तो हम पर क्या
बीतेगी. कोई इस दर्द को महसूस नहीं कर पायेगा कि कैसा लगता होगा जब उस मौहल्ले की
सबसे खूबसूरत लड़की को असमय ही हम एड्स से मरते देखेंगे. हमें पता ही नहीं चलता था
कि हमारे साथ ही जासूसी उपन्यास पढ़ने वाला लड़का कैसे एक खूंखार हत्यारे में तब्दील
हो जाता था. हममें से किसी ने भी ये सोचकर पैसे नहीं कमाये थे की एक दिन इन्ही
पैसों से अपने ही बड़े या छोटे भाइयों के क्रियाकर्म का हिसाब-क़िताब करना होगा. हम
अपनी इन सारी कोशिशों के बाद भी पराजित थे,
पर परास्त नहीं थे. उस हत्यारे समय मैं भी हम
थोड़े बहुत सनकी, आवारा,
उज्जड,
गाँवडैल,
बिगडैल सब थे,
पर हम ग़लत नहीं थे, बल्कि
सही थे. सही होना ही हमारी नियति थी.
ऐसे
वक्त में राजकीय महाविद्यालय आबुरोड के डॉक्टर लाहिरी बड़े याद आते हैं. 'डॉक्टर
सत्यव्रत लाहिरी' मेरे जीवन में आये उन चुनिंदा व्यक्तियों में से
एक थे जिनसे पार पाना आसान ही नहीं बल्कि नामुमकिन था.यह भी मनोविज्ञान और मानवीय
स्वभाव का अटल सत्य है कि आप जिनसे पार नहीं पा सकते या तो आप उनके अनुयायी हो
जाते हें या उनके विरोध में खड़े हो जाते हैं. जाहिर है उस दौर में मेरे जैसे
अक्खड़ व्यक्ति ने दूसरा ही रास्ता चुना होगा. क्यों और कैसे इस पर फिर
कभी. अभी सिर्फ इतना की डॉक्टर लाहिरी साहिब की बहुत सी बातों में से एक बात आज भी
अक्सर याद आती है. वह अक्सर कहा करते थे कि "समाज कुत्ते की पूंछ की तरह होता
है, आप
कितनी भी कोशिश कर लो, चाहे 12 साल इसको नली में रख लो,
पर समाज इतना ख़राब होता है कि आप 12 साल के बाद
भी इसको उस नली से निकालोगे तो यह कुत्ते की पूछ की तरह टेढ़े का टेढ़ा ही निकलेगा.
आप कितनी भी कोशिश कर लो यह समाज तो सुधरने वाली चीज नहीं है, यह सीधा
हो ही नहीं सकता है" इतना कटु सत्य और अटल सत्य कहने के बाद लाहिरी साहिब ने
अपने मोटे फ्रेम के चश्मे से झांकती शरारती आंखों से मुस्कुराते हुए कहा था
"हां इतना तय है कि जो भी व्यक्ति समाज को सीधा करने की कोशिश में लगा रहता
है, यह समाज
सीधा हो या ना हो पर वह व्यक्ति हमेशा सीधा रहता है" हम भी इस वज़ह से सीधे थे
क्योंकि सब को ठीक करने की अंतहीन कोशिश में लगे हुए थे. अभी भी लगे हुए हैं.
और कुछ
हो या न हो पर अपने घर, परिवार,
समय और समाज को सुधारने कि यह कोशिशें आज भी जारी
है. इस ब्लॉग पर यह सब लिखना भी सब कुछ ठीक कर देने के प्रयासों का ही परिणाम हैं.
सफलता मिले ये नहीं मिले ये वादा रहा कि पूरी ईमानदारी के साथ ऐसे ही आपसे इस
ब्लॉग पर मुलाकात होती रहेगी और बहुत जल्दी-जल्दी और बार-बार होती रहेगी.
आमीन !
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