यह हलफनामा घर की तलाश में घर छोड़कर निकले हमारे उस विस्थापन का नहीं है
बल्कि यह बयान तो उस घर, गली, मौहल्ले, गाँव या कस्बे के साथ-साथ उस समय का भी है जिसमें जग जीतने के लिए
हमें ‘अपने अपने कुरूक्षेत्र’ तलाश करने बाहर जाना ही
जाना था. उस समय का आलम यह था कि अलसाया और उनींदा सा वह कस्बा धीरे-धीरे बदलने
लगा था. यही वो दौर था जब बीसलपुर बांध बनने की प्रक्रिया में डूब क्षेत्र में आने
वाले किसानों को उनकी जमीनों का मुआवजा मिलना प्रारम्भ हो गया था. मुआवजे की उस
राशि को थैलियों में भरकर वह देवली पर आक्रमण कर रहे थे. उनके पास यदि जमीनें
खरीदने को पैसा था तो गुर्जर मौहल्ले के गुर्जरों के पास बेचने के लिए पुश्तैनी
जमीनें थी. यही वह दौर था जब राजस्थान भर में सबसे सस्ती दारू जिन तीन-चार चोकियों में मिलती थी उनमें देवली का भी नाम आता था. उस समय मदिरा, मुआवजे और मजदूरी का ‘लेथल कॉम्बिनेशन’ बहुत ही भयंकर रूप से
उभरा था. पैसों, जमीनों और दारू के इस
कॉकटेल ने उस गुर्जर मौहल्ले की बरबादी की कहानी लिखना प्रारम्भ कर दिया था. ऐसे
ही समय में हम जीवन, जवानी और जमाने को जानने की कोशिश कर रहे थे. हम जान रहे थे कि इस
घुटन भरे माहौल में रहेंगें तो मर जायेंगे इसलिए जीना और सम्मान से जीना हमारी
जरूरत बन गया था. हमें बहुत जल्दी ही यह समझ में आ गया था कि जैसी जिन्दगी हम जीना
चाहते हैं उसे पाने के लिए हमें बाहर निकलना ही पडेगा. हम जानते थे कि घर से
निकलकर हर कोई ‘गौतम’ नहीं होता है फिर भी हमें
अपने-अपने ‘गौतमत्व’ की खोज में बाहर निकलना
ही था. इतिहास गवाह है कि घर से निकले बगैर किसी को कुछ नहीं मिलता है और हमें भी
नहीं ही मिलना था इसलिए उस दौर में घर से निकलना हमारी मजबूरी थी, जरूरत थी, जिद थी.
1980 के
बाद तेजी से बदलते समय के कारण होने वाले इन सब परिवर्तनों का एकमात्र गवाह उस मौहल्ले
में सिर्फ मैं ही नहीं था, समय के थपेडों की मार को हम सब झेल रहे थे. मैं पता नहीं क्यों
तब भी सोचता था कि एक ना एक दिन मुझे इस सारे घटनाक्रम को बयान करना ही है, लिखना ही है. इसलिए उस
समय को अपनी स्मृतियों में दर्ज करने की मेरी कोशिशें प्रारम्भ हो गई थी. भला उस
तरूणाई की उम्र में कौन डायरी लिखता है, पर मैं लिख रहा था. इसके अतिरिक्त मैंने अपने
दिलोदिमाग में यादों के डीप फ्रिज का आकार उस समय से ही काफी बड़ा कर लिया था. मैं
उस समय भी जो कुछ देखता था या महसूस करता था वह स्मृतियों के उसी डीप
फ्रिज(शुक्रिया सुरेन्द्र वर्मा-मुझे चाँद चाहिए) में सुरक्षित रख लेता था. यह सोचकर
के एक ना एक दिन मुझे ‘इन्हीं हथियारों से’(शुक्रिया अमरकान्त) ना जाने किन-किन लोगों का दुख बयान करना है.
मैं राजस्थान के टोंक जिले में स्थित देवली कस्बे के एक भाग ‘एजेंसी एरिया’ में स्थित ‘गुर्जर मौहल्ले’ का निवासी हूँ. इसे
ऐजेंसी एरिया इस वजह से कहा जाता है कि इस एरिया में ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के
स्थानीय रेजीडेंट के साथ राजस्थान की विभिन्न रियासतों के पोलिटिकल ऐजेन्ट रहा
करते थे. अंग्रेजों के रेजीडेन्ट का आवास उसी हायर सैकण्डरी स्कूल में हुआ करता था
जहाँ से 1986 में,
मैं स्कूल टॉप कर निकला था. इसी स्कूल में मैंने अपने अध्ययनकाल के
दौरान अंग्रेजों के विलासिता पूर्ण रहन-सहन के अवशेष देखे थे. उस समय राजस्थान की
विभिन्न रियासतों के पोलिटिकल ऐजेन्ट व वकीलों के रहने के बनाये गये आवास जैसे कि
कोटा हाउस, बून्दी हाउस, झालावाड हाउस, जयपुर हाउस, गांवडी हाउस, शाहपूरा हाउस, भरतपुर हाउस के विशाल भवन किसी न किसी रूप में अभी तक विद्यमान थे. उस समय
शहर में चल रहे सभी सरकारी कार्यालय और संस्थान राजशाही के इन्हीं अवशेषों में
संचालित हो रहे थे. इन्हीं अवशेषों में से भरतपुर हाउस और कोटा हाउस की दीवारों से
सटा यह छोटा सा मौहल्ला मेरे बचपन का साक्षी रहा है, जिसे अब लोग ‘गुर्जर मौहल्ला’ के नाम से जानते हैं. इस बस्ती में वैसे तो और भी जातियों के लोग
रहते थे पर ज्यादातर घर गुर्जरों के थे इस वजह से इसे ‘गुर्जर मौहल्ला’ कहा जाता था.और यह
मौहल्ला देवली कस्बे में आता था.
देवली राजस्थान के टौंक जिले में राजधानी जयपुर से 165 किलोमीटर
दूर जयपुर-जबलपुर हाइवे नम्बर 12 पर स्थित हैं. यहाँ से कोटा 85 किमी, अजमेर 135 व
भीलवाड़ा 110 किमी दूर स्थित है. आस-पास के गाँवों के वृद्ध
लोग आज भी देवली आते हैं तो यह नहीं कहते कि उन्हें देवली जाना है बल्कि वह यह
कहते हैं कि उन्हें 'देवली की छावनी' जाना है. अंग्रेजों के समय से ही यह छावनी
क्षेत्र रहा है. कोटा, जयपुर, और मेवाड़ राज्यों की सीमाओं से सटे देवली के इस ढूंढाड क्षेत्र में 1844 के
आस पास कोटा के सैन्य दल के अधीन एक सैन्य टुकड़ी का गठन किया गया. इसका कार्य
स्थानीय जरायमपेशा जातियों के अपराधों को रोकने व डाकूओ से स्थानीय जनता
को बचाने का था. इस कार्य के लिए ही सैनिक टुकड़ी के रूप में ‘देवली इररेग्यूलर फोर्स’ की स्थापना हुई. यही
देवली इररेग्यूलर फोर्स 1850 में देवली छावनी(केन्टोनमेन्ट) बनी. इस टुकड़ी के
गदर आन्दोलन के दौरान बागी हो जाने के कारण 1857 में
अजमेर से मेजर जे.डी.मेकडोनल्ड को यहाँ पर भेजा गया जिन्होंने अंग्रेजों की सैन्य
शक्ति में वृद्धि करने के लिए आस-पास के इलाकों से इतने अधिक मीणाओं को इस सैन्य
टुकडी में भरती किया कि 'देवली इररेग्यूलर फोर्स' की जगह यह 'मीणा बटालियन' के नाम से
जाने जानी लगी. यही देवली इररेग्यूलर फोर्स 1903 में
ब्रिटिश आर्मी की 42वीं रेजीमेन्ट में परिवर्तित हो गई. इस रेजीमेन्ट को प्रथम विश्व
युद्व में अपने साहस और बलिदान के लिए जाना जाता है.
पता नहीं आज की पीढ़ी को पता है या नहीं पर देवली से देवली गाँव जाते समय नेकचाल पर बने एक शहीद स्मारक पर उन शहीदों के नाम अंकित हैं जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश आर्मी की 42वीं रेजीमेन्ट की तरफ से युद्ध करते हुए अपनी जान गंवाई है. नेकचाल, कृत्रिम रूप से निर्मित एक झील है जिसका निर्माण ब्रिटिश सरकार ने देवली इररेग्यूलर फोर्स की सेवाओं को सम्मान देने के लिए 1865 से 1868 के बीच में कराया था. उस समय इसकी लागत 328 रूपया आई थी. इसी नेकचाल के एक सिरे पर वह शहीद स्मारक स्थित है जिसमें उन शहीदों के नाम अंकित हैं. लेफ्टिनेन्ट कर्नल एच.सी. वालर, मेजर ए.ड़ी कोनर, लेफ्टिनेन्ट एस.डी. रीथ के साथ सूबेदार महादेवा, जमादार, हरनाथा, जग्गू सिंह, जोरावर सिंह, प्रतापसिंह, मोघ सिंह, प्रतापा के अतिरिक्त 150 सिपाहियों के नाम है.
यदि नाम से ही जातियों व परिवेश का अंदाजा लगाया जा सके तो आप यहाँ
अंकित सूरता, कचरा, देवी, फेफा, मांग्या, चन्द्रा, जगनाथा, रामदेवा, भूरिया, छोगा, गेंडिया, उदा, चतरा, भागुता, सकरामा, सांवता, फूसा और नन्दा जैसे
आधिकांश नाम देखकर के अंदाज लगा सकते हैं कि यह कौनसे परिवेश से आये होंगे.
यही देवली रेजीमेन्ट बार-बार भंग होती रही, बनती रही. 1940 में
इसे वापिस खोला गया और यहाँ अय्यूब खाँ कमाडेन्ट रहे जिन्हें बाद में पाकिस्तान का
राष्ट्रपति होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. 1942 में 'क्राउन रिप्रजेन्टेटिव पुलिस' के बदले नाम व रूप में यह रेजीमेन्ट काम करती रही.
भारत छोडो आन्दोलन के दौरान यहाँ राहुल सास्कृत्यायन, एस.एस. बाटलीवाला, जयप्रकाश नारायण, मुहम्मद अली, जवाहरलाल नेहरू, श्री अमृतपाद डांगे, सुधीर बोस, सरदार मोटा सिंह, डा.फखरूद्दीन, केशवदेव मालवीय, हरीश देव मालवीय, बी.टी.रणदिवे, एस. पाटेकर, जैसे स्वतंत्रता
सेनानियों को ब्रिटिश सरकार ने कैद रखा.
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी, जापान व इटली के युद्ध बन्दियों को भी यही लाकर
रखा गया लेकिन युधोपरांत 28 फरवरी 1947 को
यह युद्धबन्दी शिविर भी बन्द कर दिया गया. सरकार को देवली युद्धबन्दियों और
शरणार्थी शिविरों के लिए उपयुक्त जगह लगी इसलिए आजादी के तुरन्त बाद जनवरी 1948 को
इस कैम्प को फिर से खोला गया और यहाँ कराची के 10,000 सिंधी
शरणार्थियों को स्थान दिया गया. 1957 से केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की चोथी व सातवीं
बटालियन यहाँ रखी गई जिन्होंने इस कैम्प को अपनी अधीन कर लिया और यह अधीनता 1979 तक
कायम रही. 1962 में यहाँ पहली बार भारत-चीन युद्ध के समय
युद्धबन्दी शरणार्थी कैम्प बना जिसमें भारत चीन के लगभग 3000 युद्धबन्दियों
को रखा गया. यह पहली बार यहाँ 1963 में आये थे और इनका आखरी शरणार्थी यहाँ से 1967 में
मुक्त किया गया था. उन्हीं शरणार्थियों में से यहाँ जन्मी ‘जाय मा’ ने पत्रकार ‘दिलिप डिसूजा’ के साथ मिलकर ‘दा देवलीवालास-दा ट्रू
स्टोरी आफ दा 1962 चाइनीज
इंडियन इंटरनमेन्ट’ लिखी है जिसमें उन ज्यादतियों का वर्णन है जो उन पर हुई है और वह
भारत सरकार से आज भी उनका हिसाब मांग रहे हैं. उसके बाद तो यह शिविर ऐसे ही कामों
के लिए काम आता रहा. 1967 में यहाँ पाकिस्तानी से लाये गए युद्धबन्दी
अक्टूबर 1968 तक रहे. 1971 के
दौरान यहाँ बांग्लादेशी शरणार्थी भी रहे. 1977 से 1979 तक
यहाँ पर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 19 वीं बटालियन रही. 1980 से
यहाँ केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की रिजर्व बटालियन रही जिसके मध्यप्रदेश में
बारवाह जाने के बाद 1984 से यहाँ केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का भर्ती
स्कूल खुला और वर्तमान में यहाँ केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का रीजनल ट्रेनिंग
स्कूल चल रहा है.
देवली की इस ऐतिहासिकता से बाहर निकल कर देखे तो यह तेजी से बढ़ता हुआ
कस्बा है. होने को अभी देवली में तहसील हेडक्वार्टर है. एस.डी.ओ. कोर्ट है, नगरपालिका है, सेटेलाइट अस्पताल है, राजकीय महाविद्यालय है, दो सिनेमा हाल हैं. पर एक
बच्चे के तौर पर मेरी दुनिया एजेंसी एरिया या उसे भी थोड़ा सा छोटा करें तो गुर्जर
मौहल्ले तक ही सिमट कर रह जाती है. यह मौहल्ला उसी कोटा हाउस के परकोटे से सटा हुआ
है जिसमें 1857 के
गदर आन्दोलन के दो क्रान्तिकारियों को फांसी दी गई थी. कोटा हाऊस के उन नीम के पेड़
की डालियों पर झूलते हुए हमने यह कभी नहीं सोचा था कि इनमें से ही किसी एक पर गदर
में कोटा के ब्रिटिश राजनैतिक सैन्याधिकारी बर्टन और उसके दो पुत्रों के हत्यारोपी
जयदायल कायस्थ और महराब खाँ को 17 सितम्बर 1860 को
फांसी दी गई थी. इस प्रकार की विरासत से हम ही क्या यह शहर भी अनजान था. देवली
कस्बे से सटे होने के बावजूद भी लगभग 70-80 लोगों का यह मौहल्ला उस कस्बे से अलग था. जो उस
कस्बे में हो, हो सकता है कि वह परिवर्तन किसी ना किसी बहाने से या माध्यम से उस
मौहल्ले में आ जाये पर जो उस मौहल्ले होता था वह सिर्फ उसी मौहल्ले में होता था.
कुल मिलाकर यहाँ गुर्जरों के पांच गौत्र(बूकण, खटाणा, कटारिया, भाटिया, कोली) वाले परिवारों के अलावा मालियों के दो, मीणाओं के दो, कीरों के दो, बलाइयों के दो व एक
कुम्हार का परिवार रहता था. मेरी स्मृतियों के केन्द्र में गुर्जर मौहल्ले के मेरे
सारे दोस्त हैं जो ऐजेन्सी एरिया की गलियों से गुजर कर जिन्दगी के हत्थे चढ़ रहे
हैं. इसलिए में गुर्जर मौहल्ले में रहने वाले या अपने साथ पढ़ने वाले दोस्तों से ही
अपनी बात शुरू करूंगा.
इस कोरोना काल में, अचानक से देश और दुनिया में चर्चा में आ गए शहर
भीलवाड़ा में अपनी बारी का इन्तजार करते हुए मैं वैसे भी रोजाना अकेलेपन उदासी और
एकान्त में जिए हर एक पल में हज़ार बार मर रहा हूँ. 1915 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित अपनी कहानी ‘उसने कहा था’ में लेखक ‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी’ ने जब यह लिखा कि ‘मृत्यु के कुछ समय पहले
स्मृति बहुत साफ हो जाती है. जन्म भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती है. सारे
दृश्यों के रंग साफ होते हैं. समय की धुध बिल्कुल उन पर से हट जाती है.’ तो लगता है कि सही ही लिखा
होगा. यदि ऐसा नहीं होता तो लहनासिंह को विदेशी भूमि पर खुदी खंदकों में अनाम मौत
मरने से पहले भला 'रेशमवाला सालू' क्यों याद आता. मेरी जिन्दगी और स्मृतियों में तो
कोई 'रेशम वाला सालू' था ही नहीं जो मुझे इस समय याद आये. मुझे जो याद आ रहा है
उसमें या तो अभावों और गरीबी में बीता वो बचपन है या उसकी स्मृतियाँ. जिन्हें मैं
अब और अधिक साफ-साफ देख पा रहा हूँ. इसलिए उस जगह और समय के बारे में अब भी नहीं
लिखूंगा तो कब लिखूंगा ? आज ‘लॉकडाउन’ को पूरा एक महीना हो गया है. इस समय ना तो घर से बाहर निकल पा रहे
हैं ना अपनी यादों से. इन हालात और एकान्त में लाजमी है कि यादों की गठरी को ही
खोल लिया जाये. अभी फुरसत हैं तो या तो मैं खुद के बारे में लिखूं या उस परिवेश के
बारे में जिस से निकल कर में यहाँ तक आया हूँ. जिस कस्बे में मेरा जन्म हुआ, जहाँ मेरी शिक्षा हुई बात
वहाँ से भी शुरू की जा सकती है. मगर सच बात तो यह है कि शायद मैं उस कस्बे को भी
तो पूरी तरह से नहीं जानता.
यह बनाओं का नहीं बनियों का शहर था, बनिये ही उस शहर में राज करते थे. पूरा बाजार उनके
कंधों पर टिका होता था. उन बनियों को विरासत में मिली परम्परागत रूप से चलने वाली
या तो सर्राफों की दुकान थी या कपड़ों की. आस-पास के गाँवों के किसान भी अपनी फसलों
के खाद-बीज के वितरण-विपणन के लिए इसी शहर पर निर्भर होते थे. यहाँ की दुकानों से
खरीद कर ले गये फसलों के बीजों को कुछ समय बाद अनाजों के रूप में लौटकर यहीं आना
होता था. आस-पास के गाँव के किसानों की भीड़ अपने पारिवारिक समारोहों में खरीददारी
करने के लिए फसल कटने के बाद आये पैसों को हाथ में लेकर आखा तीज से पूर्व शहर में
उमड आते थे और ये बनिये उनका भरोसा खरीदकर अपना कुछ भी सामान बेच देते थे. बाजार
में सर्राफों की तो बात ही अलग थी, उस समय ऐसी अफवाहें कभी-कभी उड़ती रहती थी कि उनके
द्वारा बेची जाने वाली चांदी में मिलावट होती थी. उस चांदी को बेचने वाले भी वही
होते थे और खरीदने वाले भी क्यों कि वह चाँदी और कहीं पर बिकने लायक होती भी नहीं
थी. इसलिए उन सर्राफों के फिक्स ग्राहक होते थे जो एक बार वहाँ से चाँदी ले लेता
था वह फिर और कहीं से चाँदी लेता नहीं था या लेने लायक रहता नहीं था. यह सर्राफ भी
इतने दरियादिल थे कि बगैर उस किसान के घर गये, बगैर किसी गारन्टी के उसे किलो-आधा किलो चाँदी
उधार तक दे देते थे. वह जानते थे कि यह चांदी हमारी दुकान से ले जाने वाला बन्दा
भले ही गरीबी के दलदल में डूब जाये पर हमारी उधारी डूबने वाली नहीं है. दादा की
उधार बाप चुकायेगा नहीं तो पोता या पडपोता चुकायेगा, मगर चुकायेगा जरूर इसलिए धडल्ले से उनकी यह
बेईमानी भी चल रही थी और दुकानदारी भी. ना कोई पक्की रसीद होती थी ना कोई बिल पर
धंधा लगातार जारी था और फल-फूल रहा था. कुल मिलाकर यह बेईमानी का धंधा पूरी
ईमानदारी के साथ चल रहा था.
यह वह कस्बा था जिसकी किस्मत में दो जिलों के बीच के सीमांकन को झेलना
लिखा था आप आराम से टोंक जिले की सीमा में चाय पीकर भीलवाड़ा जिले की सीमा में
मुत्रविसर्जन(धन्यवाद-थ्री इडियट) कर सकते थे. आप आराम से अपने मवेशियों को
भीलवाड़ा का जंगल चराकर टोंक जिले के घरों और बाड़ों में बांध सकते थे. सामाजिक
अलगाव या छुआछूत के कोई निशान शहर में नजर नहीं आते थे. शायद यह केन्टोनमेन्ट
एरिया रहने का प्रभाव ही रहा होगा जिसके कारण विभिन्न तरह की संस्कृतियों का
समावेश यहाँ नजर आता था. श्योराज सिंह बैचैन का ‘रावण’ यहाँ नहीं था. शहर की
रामलीला समिति में वर्चस्व भले ही सवर्णों का था मगर उसमें सभी समुदाय और जातियों
के लोग होते थे. सभी जातियों के कलाप्रेमी, रसिक लोगों की एक टीम होती थी जिसके सदस्य शहर की
रामलीला में नायक-नायिकाओं की भूमिका निभाते थे. यहाँ कि रामलीला भी अलग ही गायकी
वाली होती थी. रामलीला के मंच पर खड़े होकर अभिनय करने वाले हर किरदार के पीछे
रजिस्टर लेकर एक आदमी खड़ा होता था जो बताता था कि उस किरदार को किस समय और क्या
बोलना है और उसके बताने पर ही किरदार के मुख से बहुधा पद्यरूप में डायलॉग निकलते
थे. बीच-बीच में मुख्य किरदारों की तरफ से गायन भी होता था जिनकी संगत देने के लिए
नगाड़े वाला मंच के पास ही स्थित स्थान पर विराजमान होता था. यदि मेघनाद के मारे
जाने पर रामलीला में मेघनाथ की पत्नी सुलोचना बना स्त्री वेशधारी स्त्रेण पुरूष
अगर लावणी और ख्याल वाली गायकी में नगाड़े के साथ सुर-ताल मिलाकर इस तरीके से विधवा
विलाप करे कि ‘नहीं टूटे दूध के दन्त उमर मेरी कैसे कटे रे बाली’ तो आप अन्दाज लगा सकते
हैं कि वह रामलीला और उसका मंचन कितना मजेदार रहा होगा. कुल मिलाकर एक प्रहसन था
जो बड़े आराम से निर्विघ्न रूप से चल रहा था.
जो स्थानीय लोग भजन गायकी या रात्रि जागरण में
जितने ज्यादा सांस्कृतिक और सुरूचिपूर्ण नजर आते थे वह हर वर्ष होली के बाद होने
वाले दो सार्वजनिक आयोजनों में उतने ही ज्यादा अश्लील नजर आते थे. यहाँ का
सांस्कृतिक परिवेश में धार्मिकता और अश्लीलता का मिश्रण था. होली के दिनों में शहर
मे दो सार्वजनिक उत्सव हर वर्ष आयोजित किये जाते थे. शहर के दो कोनो में हनुमान जी
के मंदिर हुआ करते थे. एक को गंगा गुरिया के हनुमान जी और दूसरे को नेवर बाग के
बालाजी कहा करते थे. धूलण्डी के दिन गंगा गुरिया
के हनुमान जी के स्थान पर और उसके दूसरे दिन नेवरबाग के बालाजी के स्थान पर
सार्वजनिक मेले का आयोजन किया जाता था जिसमें प्रसाद के रूप में भांग की ठंडाई का
वितरण किया जाता था. होता यूँ था कि जो बच्चे या महिलायें होती थी उनको दिये जाने
वाले ठण्ड़ाई नामक तरल प्रसाद में भांग की मात्रा कम और ठंडाई की मात्रा ज्यादा
होती थी जबकि वयस्कों और शौकीन लोगों को दिये जाने वाले प्रसाद में भांग की मात्रा
ज्यादा और ठंडाई की मात्रा कम होती थी. परिणाम यह होता था कि दिन ढलते-ढलते महिला
और बच्चे उस पेय पदार्थ को पीकर, मेले को जीकर, हनुमान जी के दर्शन कर अपने-अपने घरों में चले
जाते थे. सूरज डूबते-डूबते महिलाओं ओर बच्चों का काम समाप्त हो जाता था. इन्होने
भगवान के दर्शन कर मेले में खरीददारी कर ली होती थी, बच्चे मेले में झूले चकरी का आनन्द ले चुके होते
लेते थे. पर असली मेला दिन ढलने के बाद ही प्रारम्भ होता था. भांगयुक्त ठण्ड़ाई का
प्रसाद पाकर जवान और शौकीन लोग दिन ढलने तक पूरी तरह से भांग की तरंग में आ जाते
थे. रात होते ही मेले की असली रौनक प्रारम्भ होती थी.
भजन गाने वाले व्यक्तियों
की धार्मिक मंडली मंदिर परिसर तक हनुमान जी के भजन गाने में व्यस्त रहती थी. और
जैसे ही दिन अस्त होता था यह उस मन्दिर परिसर से बाहर निकल जाती थी. और उस मन्दिर
परिसर से बाहर निकलते ही अपने असली रंग में आ जाती थी. होली में गाये जाने वाले
अश्लील गीतों यानि ‘केश्या-माध्या’ से इनका गायन प्रारम्भ होता था और महिला पुरूष
के बीच के निजी अन्तरंग सम्बन्धों की क्रियाविधि को यह तरन्नुम में लय के साथ चंग
बजाकर गाने पर समाप्त होता था. मजेदार बात यह थी कि इनमें से ज्यादा गायक
वहीं होते थे जो कि शहर के धार्मिक आयोजनों में भाग लेते थे. उनकी गायन प्रतिभा
भजनों से अश्लील गालियों तक अनिर्बाध, अविरल बहती रहती थी. अपने गायन में जो जितने
ज्यादा धार्मिक हो सकते थे वह इस आयोजन में उतने ही ज्यादा अश्लील हो सकते थे. इस
कस्बे की सांस्कृतिक परिवेश का अन्दाजा सिर्फ इस एक बात से लगाया जा सकता है कि
कोई वयोवृद्ध दादाजी सामाजिक उत्सव जैसे इन सार्वजनिक आयोजनों में अपनी खरखरी बांस
जैसी फटी हुई आवाज में इस प्रकार के गीत पूरे तरन्नुम से गा सकता था और उसी महफिल
में उसका सगा जवान होता पोता श्रोता की तरह उपस्थित होकर उस पर तालियाँ बजा सकता
था. जो शहर के संपन्न थे वह ही धार्मिक कार्यों को प्रायोजित करते थे और वह
ही होली के बाद होने वाले इन दोनों आयोजनों में जाजम बिछाने का कार्य करते थे. उस
जमाने में इस प्रकार से यह शहर आपको एक साथ धार्मिक और अश्लील होने की आजादी
उपलब्ध कराता था.
यहाँ मुसलमान थे मगर साम्प्रदायिकता नहीं थी. यहाँ दलित थे पर छूआछूत नहीं
थी. यहाँ आदिवासी थे पर उनका शोषण नहीं था. यहाँ शरणार्थी थे पर उन पर अत्याचार
नहीं होते थे. सामाजिक समरसता का प्रमाण यही था कि यहाँ मौहर्रम के दिन ताजिये के
नीचे से मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दू भी अपने बच्चों को वैसे ही निकालते थे जैसे
कि ठाकुर जी के बेवाण के नीचे से हिन्दुओं के साथ साथ मुसलमान भी अपने अपने बच्चों
को निकालते थे. यहाँ बांग्लादेश से आये विस्थापित शरणार्थी भी थे जिनको यह कस्बा
बंगाली कोलोनी में सहज रूप से स्वीकार चुका था. यहाँ सरदार भी थे पर सब असरदार थे.
कुल मिलाकर नजारा यह था कि सबके अपने अपने धार्मिक उत्सव और त्यौंहार होते थे. और
सब इन आयोजनों में यथायोग्य, यथाक्षमता सहयोग प्रदान करते थे. इस प्रकार सभी
लोग कस्बे और शहर की विरासत को चुपचाप आगे बढाये जा रहे थे. सब कुछ चमत्कारिक और
विस्मयकारी रूप से स्थिर था. बदलाव की कहीं कोई गुजाइश ही नजर नहीं आती थी.
इन कस्बों में वैसे भी अनायास कुछ नहीं बदलता था. सरकारी विद्यालय तो किसी
भी प्रकार के बदलाव से एकदम अछूते रहते थे. स्कूलों या कक्षाओं में तो कुछ भी नहीं
बदलता था. हम जो पहली कक्षा में प्रवेश ले लेते थे तो आठवीं कक्षा तक वैसे ही रहते
थे. स्कूल में क्लास टीचर भले ही बदल जाये पर न स्कूल में शिक्षकों की संख्या
बदलती थी ना ही कोई विद्यार्थी. यहाँ तक की हमारी कक्षाओं में वार्षिक परीक्षा
परिणाम के बाद विद्यार्थियों के स्थान तक नहीं बदलते थे. जो बन्दा पहली क्लास में
चोथे स्थान पर आता था तो वह आठवीं तक या वह स्कूल बदलने तक हर कक्षा में चोथे
स्थान पर ही आता था. मेरे से पहले विमल अग्रवाल, कृष्णा शर्मा और बाबू लाल
गुर्जर क्रमशः पहले दूसरे व तीसरे स्थान पर आते रहे तो वह आठवीं तक इन्हीं स्थानों
पर काबिज रहे. अब सोचता हूँ तो लगता है कि उस दौर के शिक्षकों के लिए भी यह कार्य
कितना श्रमसाध्य होता होगा कि वह हर बार इसी क्रम को बनाये रखते थे. जो सहपाठी थे
वे भी या तो उसी मौहल्ले के होते थे या पास वाले मौहल्ले के. उस शान्त पानी की झील
जैसे शैक्षिक वातावरण में कंकड की तरह अचानक से कोई विद्यार्थी बाहर से आकर सब उथल
पुथल कर देता था. यह विद्यार्थी वह होते थे जिनके पिता राजकीय सेवा में स्थान्तरित
होकर यहाँ पर आते थे. जिनका यहाँ पर स्थानांतरण होता था वह डाक्टर, इंजिनियर, विकास अधिकारी, उप खण्ड़ अधिकारी या ऐसे
ही पदधारी व्यक्ति होते थे जो स्थानीय स्तर के व्यक्तियों द्वारा नहीं भरे जाते
थे. स्थानीय मास्टरों या कंपाउंडरों की भीड़ में किसी डाक्टर, इंजीनियर
या विकास अधिकारी का कहीं और से स्थानांतरित होकर आना उस कस्बे के लिए उस समय तो
विशेष घटना ही माना जाता था.
बाहर से कोई कितना ही बड़ा सरकारी अफसर यदि अपने साथ अपने परिवार को भी
लेकर उस शहर में आ जाये तो उसे अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी स्कूलों में ही
करवाना पड़ता था. उस समय सरकारी स्कूलों का ही वर्चस्व था. प्राइवेट स्कूलो के नाम
पर उस समय उस कस्बे में सिर्फ कल्पना कालेज या गाँधी बाल विद्या मन्दिर का ही नाम
था जिनमें भी या तो नर्सरी लेवल की या प्राथमिक स्तर की ही पढाई होती थी. मजबूरन
शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को भी हमारी उस सरकारी स्कूल
में ही प्रवेश लेना पड़ता था. इन सरकारी स्कूलों के अलावा उनके पास शिक्षा प्राप्त
करने का कोई विकल्प नहीं होता था. जैसे कि उस समय पंचायत समिति में आये ब्लाक
विकास अधिकारी का बच्चा सुरेश हमारे ही साथ पढता था. वहीं के कर्मचारी का बालक
खलीक अहमद नकवी भी ऐसे ही हमारी कक्षा में आया था. ऐसे ही पॉवर हाऊस में आये
इंजिनियर राधेश्याम शर्मा के सुपुत्र अजय शर्मा और पशु चिकित्सालय में आये
वेटरनेरी डाक्टर की लडकी डेजी ने भी हमारी कक्षा में प्रवेश लिया था. यह नये आने
वाले बच्चे सरकारी स्कुलों की एकरस गर्मी में शीतल बयार या नसीम की तरह होते थे.
ऐसे खूबसूरत और सुसंस्कृत बच्चे हमारे नसीब में कहाँ थे. वह हम जैसे विद्यार्थियों
की ही नहीं बल्कि पूरे स्कूल के विद्यार्थियों और मास्टरों की भी जान होते थे. इन
बच्चे बच्चियों का आना हम जैसे सहपाठियों के लिए तो क्या मास्टरों के लिए भी किसी
अजूबे से कम नहीं होता था.
उस कस्बे के मौहल्लों में इन तोतारटन्त विद्यालयों में पढ़कर कोई और कुछ
बने या नहीं बने पर मास्टर या कम्पाउंडर जरूर बन जाते थे. ऐसा माना जा सकता है कि
उन स्कूलों में स्कूल के मास्टरों और अस्पताल के कम्पाउन्डरों की खेती होती थी.
आजादी के बाद जन्मी पहली पीढ़ी उस कस्बे में पढ़ लिखकर या तो किसी स्कूल में मास्टर
बन जाती थी या किसी अस्पताल में कम्पाउन्डर. इसी प्रवृत्ति के कारण ऐसा माना जाता
था कि स्कुल में शिक्षकों और अस्पतालों में कम्पाउन्ड़रों के पदों पर स्थानीय
युवकों को एक प्रकार से अघोषित आरक्षण प्राप्त था. यह दोनों पद उस दौर के नवयुवकों
के सपनों की आखिरी मंजिल होती थी और वह इसे पाकर ही संतुष्ठ हो जाते थे. यह
मुहावरा उन दिनों उस शहर के लोगों पर ही फिट होता था कि अगर अंधेरे में कोई पत्थर
भी उछालो तो वह किसी मास्टर या कम्पाउन्डर की पीठ पर ही जाकर के गिरता था.
ऐसे समय में भी हम भयंकर
रूप से पिछड़े हुए थे. कई मायनों में हम एक पीढ़ी पीछे चल रहे थे. हम फिल्मों से
प्रभावित नहीं थे क्योंकि हम फिल्म देखना अफोर्ड नहीं कर सकते थे इसलिए हम फिल्म देखने
वालों से प्रभावित होते थे. हम भले ही धर्मन्द्र या अमिताभ बच्चन की फिल्में नहीं
देख पा रहे थे पर हमें सुकून था कि हमने उन लोगों को देखा था जिन्होनें इनकी
फिल्में देखी थी और जो इनके जैसा बनना और दिखना चाहते थे. हम धर्मेन्द्र या अमिताभ
बच्चन नहीं होना चाहते थे बल्कि दिनेश सिंह नरूका या गजेन्द्र महात्मा की तरह होना
चाहते थे. यह दिनेश सिंह नरूका और गजेन्द्र महात्मा ही हमारे धर्मेन्द्र और अमिताभ
बच्चन होते थे. हो सकता हो कि धर्मेन्द्र या अमिताभ बच्चन बनना दिनेश सिंह नरूका
या गजेन्द्र महात्मा के लक्ष्य रहे हों पर हमारी सोच की सीमा उन दिनों इन दोनों पर
आकर खत्म हो जाती थी. उनका चलना, बोलना, दिखना, कपड़े पहनना, और कभी-कभी उनके द्वारा देखी गई फिल्मों की स्टोरी हम लोगों को
बिठाकर मय बेकग्राउन्ड म्यूजिक और डायलॉग के बाकायदा ‘ढण टणाण ण’ करके सुनाना हमारे लिए उस
समय अलौकिक अनुभव होता था. वह हमारे बचपन के हीरो थे. उनके लिए हम कुछ भी कर सकते
थे. अपनी सारी कोशिशों और कलाबाजियों के बाद हम सिर्फ उन जैसा होना और बनना चाहते
थे. हम बहुत सी खुशफहमियाँ पाल कर जी रहे थे.
उस मौहल्ले या बस्ती में जो गरीब पैदा होता था वह गरीब ही मर जाता था. जो
अमीर घर में पैदा होता था वह अमीर ही रहता था. ना कोई इस पदानुक्रम को तोड़कर नीचे
जा सकता था ना कोई ऊपर आ सकता था. सात्विकता और ईमानदारी लोगों के व्यवहार और आचरण
में बसी हुई थी. पता नहीं लोग ईश्वर से ड़रते थे इसलिए नैतिक थे या नैतिक थे इसलिए
ईश्वर से ड़रते थे पर सब भयंकर रूप से नैतिक थे और नैतिकता में ही विश्वास करते थे.
अनैतिक तरीके से कमाया गया पैसा सब कुछ कैसे समाप्त कर देता है यह शान्तिस्वरूप जी
महात्मा के परिवार को देखकर जाना जा सकता था. यह गलत तरीके से कमाया गया पैसा था
जो शांतिस्वरूप जी ने आबकारी विभाग के दारू गोदामों पर काम करके कमाया था. उस पैसे
की रौनक और उसका अनावश्यक प्रदर्शन देखने लायक होता था. उस मौहल्ले में सबसे
ज्यादा दीवाली की रौनक भी उनके ही घर पर होती थी. शान्तिस्वरूप जी महात्मा के
दोनों पुत्रों के दोस्ताना व्यवहार के कारण उस मौहल्ले में अपने आप को जवान समझने
वाला हर लड़का उनकी महफिल का दरबारी हुआ करता था. मौहल्ले के सारे आवेगों को यह
शामें उनके घर की महफिलों में शामिल कर लेती थी. जितने पटाखे दीवाली के दिन उनके
घर में चलते थे उतने तो पूरे मौहल्ले भर में नहीं चलते थे. सुबह उनके घर के बाहर
कचरे के ढेर में बिना चले पटाखों को ढूंढने वाले लड़कों की भीड में एक चेहरा हमारा
भी होता था. हममें से किसी को भी यदि बिना चला हुआ एक भी पटाखा मिल जाता था(और वह
मिलता ही मिलता था) तो हमारी भी एक तरीके से दीवाली हो जाती थी. हम लोग भी दीवाली
मना ही लेते थे. पर अनैतिकता से आये इस धन ने सब खत्म कर दिया था. पहले महात्मा जी
शान्त हुए फिर दारू उनके बडे बेटे गजेन्द्र महात्मा को खा गई फिर दारू ही उनके
छोटे बेटे और मेरे मित्र राजेन्द्र महात्मा को भी निगल गयी थी. यह हादसा उसी
परिवार के साथ नहीं हुआ था बल्कि ऐसे कई परिवारों को शराब लील जाती थी.
बाद में शान्तिस्वरूप जी महात्मा के उस खंडहर और वीरान होते मकान को देखकर
मन उदास हो जाता था. दीपावली के दिन अब वहाँ पर ड़रावना सन्नाटा छाया रहता था.
शान्तिस्वरूप जी महात्मा के बच्चों के पैसे पर ऐश करने वाले दोस्त अब कहीं नजर
नहीं आते थे. अपने-अपने घरों की रौशनी में अपने-अपने परिवारों के साथ दीपावली
मनाते हुए उनमें इतना भी नैतिक साहस नहीं बचा होता था कि वह अपने मरहूम दोस्त की
याद में कम से कम एक दीपक तो उस बन्द सूने मकान की दहलीज पर जला दें जहाँ पर
उन्होंने बेशुमार अय्याशियाँ की थी. कुछ समय तक गजेन्द्र-राजेन्द्र की माँ उस मकान
के बाहर घूमते हुए कभी-कभार अकेले ही नजर आ जाती थी. कुछ दिनों के बाद उसने भी
दिखना बन्द कर दिया तो इसकी वजह पूछने पर जीजी(माँ) ने बताया कि वह भी नहीं रही.
मन में बेहद उदासी छा गयी. इन दिनों ऐसा क्यों होता है कि रोजाना जब भी शाम को
जीजी से फोन पर बात होती है तो उनकी बातचीत में सबसे पहले उन्हीं का जिक्र होता है
जो लोग दुनिया से चले गये हैं या जाने वाले हैं. क्या वह अनजाने में ही जीवन की
सबसे कटु सच्चाई की तरफ इशारा कर रही होती है. वही किसी दिन बताती है कि आज कौन
चला गया. वही किसी दिन बताती है कि आज किसकी तबीयत बहुत खराब है. वह ही एक दिन
बताती है कि ‘पकौड़ियों वाली बा’ ने आज अपने घर के बाहर कुर्सी पर बैठकर पहले तो खुद पर केरोसीन छिड़का
और फिर खुद ही खुद को आग लगा ली. मैं अपने मित्र बेणीप्रसाद शर्मा की उस
मधुरभाषिणी पंड़िताइन माँ का ममतामयी चेहरा याद कर उदासी और इन अनुत्तरित सवालों
में खो जाता हूँ कि अपनी वृद्ध अवस्था में वह कौनसा दुःख रहा होगा जिसके कारण
धार्मिक महिला के रूप में जाने जाने वाली उस विधवा ने स्वयं अपने हाथों मृत्यु का
वरण किया होगा. उस मौहल्ले के ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न मुझे और गहरे अवसाद के
अंधेरों में उतार देते हैं.
उस कस्बे में मेरा गुर्जर मौहल्ला तो वैसे भी सबसे अलग था. उस मौहल्ले में
औरतें लम्बा वैधव्य भोगती थी. धन्नी बा(धापू बा), बदरी बा, बरजी बा, अमरी बा, जैकुरी बा, गंगा बा, गोदावरी बा, नूई बा, मानी बा, जैसी कितनी ही बायें यानि
दादियाँ थी जिनके पति नहीं थे. थे पर मैंने देखे नहीं थे. मेरे होश में आने से
लेकर लम्बे समय तक मैंने उन्हें वैधव्य भोगते हुए ही देखा था. ऐसा ही वैधव्य मांगी
बा को भी झेलना पड़ रहा था. मैंने बस इतना सुना है कि उनके पति कान्हा जी कीर
गुर्जरों की सेवा चाकरी किया करते थे. गुर्जर मौहल्ले के पटेल हरदेव जी की पोल
उनका स्थाई निवास स्थान होता था. उनका पूरा समय पटेल जी के यहाँ सेवा-चाकरी करने
और उनके यहाँ बनने वाले निरामिष भोजन की व्यवस्था करने में ही व्यतीत होता था. जब
वह मरे तो अपने पीछे लम्बा चौड़ा परिवार छोडकर गये थे. पाँच बेटे लाला, गुल्या, मूल्या, रामकिशन और गोपीलाल के
अलावा एक लड़की गोपी बाई भी थी. कीरों का दूसरा परिवार केली बा का था. वह भी चिर
विधवा थी. सब्जी बेचकर उसने अपने दो बेटों को पाला था. एक का नाम था हजारी और
दूसरे का छीतर. हजारी को लोग ‘अंच्छे’ के नाम से पुकारते थे क्योंकि उसे बात बात में ‘अंच्छे’ पुकारने की आदत थी. जिन
लोगों को शराब ने अपनी भेंट में ले लिया था उनमें हजारी का नाम सबसे ऊपर आता था.
अपनी कद काठी में मजबूत हजारी पेट्रोल पम्प चैराहे पर मजदूरी करता था. सभी मजदूरों
में अपनी बातचीत की शैली और हंसी मजाक के कारण वह सबसे लोकप्रिय था. मगर शराब उसे
लील गयी. वह बिना नागा रोजाना पीता था और हद से अधिक पीता था. नशे में ही एक दिन
जान निकल गयी. हैरत की बात है कि हजारी का बेटा बदरी आज अपने पिता की जगह मजदूरी
तो करता है पर शराब को हाथ तक नहीं लगाता है.
उस माहौल में सब कुछ हो
लेकिन प्रेम कहानियाँ नहीं हो ऐसा हो ही नहीं सकता था. वैसे भी उस मौहल्ले में
जवानी जब भी आती थी तो टूट कर आती थी. कम उम्र में ही ब्याह दी गई लड़कियां बारह या
ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह साल में जवानी की दहलीज पर कदम रखती थी. सोलह साल की
उम्र में शादी या गौना होने के बाद बीस-बाइस साल में तीन या चार बच्चों को जन्म
देने के बाद उनका बुढापा शुरू हो जाता था. इससे समझ में आ जाता था कि उनकी किस्मत
में लम्बा वैधव्य क्यों होता था. मौहल्ले में होने वाले बाल विवाह के कारण बेटियों
और माँओं का एक साथ गर्भवती होना वहाँ की सामान्य परिपाटी थी. कभी-कभी किसी युवा
को ज्यादा जोश चढ़ जाता था तो कई किस्से बन जाते थे. वहाँ ‘देवालाल की जवानी’ का ऐपिसोड बन जाता था
जिसके पिटने के कारणों पर लम्बे समय तक चर्चा होती रहती थी. उस मौहल्ले में अवैध
सम्बन्ध इतने गोपनीय तरीके से होते थे कि उनका पता ही नहीं चल पाता था क्योंकि वह
चुपचाप प्रारम्भ हो जाते थे और चुपचाप ही समाप्त भी हो जाते थे. अनैतिक सम्बन्धों
की एक परिणिति कभी-कभी यह भी होती थी कि कोई बहु लोकलाज के कारण कुंए में कूदकर
जान दे देती थी और उसे हादसा मानकर मौहल्ला चुप हो जाता था. जब मोहल्ला गरीब था तो
लगभग सभी मकानों में समानता होती थी, सबके कच्चे मकान होते थे. पूरे मौहल्ले में पटेल
जी के मकान को छोड़कर कोई दूसरा पक्का मकान नहीं होता था. दीवाली के समय पर लगभग
सभी कच्चे मकानों को एक साथ लीपा-पोता जाता था. झीकरे और कढ़ी से रंग किया जाता था.
कढ़ी से आँगन में मांड़णे किये जाते थे. दीपावली के समय तो आप एक से दूसरे घर के
पोथीडा से पौथीडा मिला हुआ देख सकते थे.
ब्राह्ममणवादी व्यवस्था से बाहर रह रही गुर्जर मौहल्ले की सभी जातियों ने
सनातनी कर्मकाण्डीय श्राद्ध प्रथा को दरकिनार कर रखा था. बनिये, ब्राह्मण, राजपूत और जैन जातियों के
परिवारों के अलावा सभी जातियों में दीपावली के दिन सुबह-सुबह ‘छांट भरने’ की पूजा होती थी. यह पूजा
लक्ष्मी पूजा वाले दिन सुबह की जाती थी. इस पूजा के बहाने सभी जातियाँ अपने-अपने
पूर्वजों को याद करती थी, उनका तर्पण करती थी. उस दिन ‘ऊंचा के तालाब’ के पानी में एक जाति की एक गौत्र के परिवार के सभी पुरूष सदस्य
घुटनों तक पानी में खड़े होकर अपने पूर्वजों को चूरमा-बाटी-खीर का अर्घ्य देते थे.
पता नहीं क्यों पर इस पूजा को ‘छांट भरना’ कहा जाता था. ना इसमें कोई पुरोहित होता था ना कोई विधि विधान. बस उस
गौत्र का सर्वाधिक वयोवृद्ध सदस्य कुश, ज्वार या बाजरे के चारे से बनी लम्बी श्रृंखला के
एक तरफ सूर्य की तरफ मुंह करके घुटनों तक तालाब के पानी में खड़े सभी सदस्यों के
हाथ में प्रसाद देता था और ऐसा कुछ कहता था कि ‘जो भी पूर्वज हो चाहे वह कही भीं मरा हो, युद्ध में, पानी में डूबने से, सांप के काटने से, या किसी भी और तरीके से
वह जहाँ कहीं भी हो आये और हमारे इस अर्घ्य को स्वीकार करे.’ और इसके साथ ही सभी पुरूष
सदस्य अपनी अंजुरियों में लिए चुरमा-खीर के प्रसाद को उस लम्बी कुशा के ऊपर रखे
पलाश के पत्तों पर अर्पित कर देते थे. सूर्य देवता और अनन्त में विलिन अपने
पूर्वजों को प्रणाम कर इस धार्मिक कार्य को सम्पन्न करते थे. इस ‘छांट भरने’ की पूजा का उस क्षेत्र
में इतना प्रचलन था कि सभी जीवित पुरूष सदस्यों का इस पूजा में सम्मिलित होना
आवश्यक माना जाता था. मौहल्ले के कुछ गुर्जर ट्रक चलाते थे उनको भी इस दिन लौटना
ही लौटना होता था. जो कहीं बाहर फौज की नौकरी में हो तो भी इस दिन उनको छुटटी लेकर
आना ही पड़ता था. बहुत सी बार तो ऐसा भी हुआ कि अस्पताल में या घर में किसी भी
महिला के प्रसवोपरान्त पुत्र रत्न होते ही उसे नाल काटकर सीधा उस पूजा में हाथ
लगाने के लिए ऊंचा के तालाब में ले जाया जाता था. और एक दो बार तो ऐसा भी हुआ कि
पूजा में मरणासन्न वृद्धों को लेकर गये तो वहीं पूजा के दौरान या पूजा के उपरान्त
मृत्यु हो जाने के कारण उन्हें वहाँ से सीधा शमशान ले जाना पड़ा. पर इतना होने पर
भी सभी पुरूषों की अनिवार्य उपस्थिति उस पूजा में आवश्यक मानी गयी और लोग उसको
निभाते रहे.
दिन में होने वाली इस
पूजा के बाद शाम को गुर्जर मोहल्ले में माताजी के चौक में बैलों की पूजा होती थी.
लोग अपनी-अपनी बैलों की जोड़ियों को लेकर पूजा करते थे. सभी सजे-धजे बैलों की
जोड़ियों को एक साथ खड़ा किया जाता था. बैलों के शरीर पर रंग लगाया जाता था. सींगों
पर रंगीन पन्नी मढ़ी जाती थी. गले में झूले टांगे जाती थी या घुघरू बांधे जाते थे.
हर घर में एक ना एक बैल की जोड़ी होती थी तो माताजी के उस सार्वजनिक चैक में बैलों
की जोड़ियों की काफी लम्बी लाइन लग जाती थी. घर का सबसे युवा और दमदार सदस्य बैलों
की जोडियों को थामे सजा-धजा साफा बांधे, बेलों के बीच में उनकी लगाम थामे चौकस और मुस्तैद
खड़ा होता था. उस युवा सदस्य की पत्नी पूजा की थाली लेकर सामने आती थी. पहले पति को
तिलक लगाती फिर बैलों को तिलक लगाया जाता था. गुड़ खिलाया जाता था. आरती उतारी जाती
थी. पता नहीं यह परम्परा कहाँ से चली आई पर बैल पूजा के दौरान मौहल्ले के कुछ
शोहदे बैलों पर या उनके सामने पटाखे चलाते थे. पटाखों की आवाज से बैल भडक जाते थे.
चलते हुए पटाखों के दरम्यान पूरी पूजा के दौरान बैलों को शान्त रखना और पूरी पूजा के
समय तक डटे रहना उस मौहल्ले के गबरू जवानों की मर्दानगी की सच्ची निशानी हुआ करता
था. जो अपने बैलों के साथ अन्त तक डटे रहता था उसे सम्मान की नजर से देखा जाता था.
इसीलिए शौहदों की इस पटाखे बाजी पर ना तो कभी कोई विवाद होता था ना ही कभी कोई
विरोध होता था.
ऐसे ही बरसात के दिनों
में उस मौहल्ले मे ‘गाँव बाहर रोटी’ का आयोजन किया जाता था. यदि बरसात अच्छी हो जाये तो ईश्वर को धन्यवाद
देने के लिए और यदि बरसात कम हो तो ईश्वर से बरसात की प्रार्थना करने के लिए इस
पूजा का आयोजन किया जाता था. इस आयोजन में गाँव के सम्मानित पंचों के द्वारा एक
दिन तय कर लिया जाता था कि इस दिन ‘गाँव बाहर रोटी’ का आयोजन किया जायेगा. उस दिन कोई भी अपने घर में खाना नहीं बनाता
था. उस दिन खाना तो दूर की बात है मौहल्ले के किसी भी घर में चूल्हा तक नहीं जलता
था. उस दिन घर से बाहर, गाँव से बाहर, खेतों में, तालाब पर, माताजी के स्थान पर, जूझार जी के, सगस जी के स्थान पर, मन्दिर में ही लाडू-बाटी-चूरमे का भोजन बनाया जाता
था. सब गाँव के बाहर ही भोजन करते थे इसीलिए शायद उसे ‘गाँव बाहर रोटी’ का नाम दिया गया था. उस
आयोजन मैं हर परिवार अपने आस पास के रिश्तेदारों-सम्बन्धियों को भोजन करने बुलाता
था. वह भी सब दौड़े चले आते थे. वह जानते थे कि अगर वह इस प्रकार के बुलावे पर नहीं
आयेंगें तो जब ऐसा ही आयोजन उनके गाँवों में भी होगा तो उनके बुलावे पर भी कोई
नहीं आयेगा. इसलिए यह परिवारों का सामूहिक आयोजन बन जाता था.
‘गाँव बाहर रोटी’ के दिन सुबह-सुबह ही सबसे पहले सभी गाँव वालों को अपने परिवार जनों
और पशुओं के साथ ‘टोटक्या’ के नीचे से निकलना होता था. सेरी(पता नहीं कि उसे सेरी क्यों कहा
जाता था पर यही वो विलायती बबूलों से घिरा वह एक मात्र सकड़ा सा रास्ता था जिससे
मौहल्ले के पशु चरने के लिए जगल को जाते थे) के मुंह के इस तरफ वाली पुलिया पर
जहाँ पर यह टोटक्या बांधा जाता था वहाँ पर टौंक जिले की सीमा खत्म होती थी. लोग
अपने अपने पशुओं को टोटक्या के नीचे से गुजारते थे. पास में खड़ा कोई व्यक्ति
बाल्टी में भरे गौमूत्र में डूबी नीम की टहनी से सबको छींटे देता था. सबको उन
छींटों से गुजरना आवश्यक था. पास में ही कोई झालर बजा रहा होता था तो कोई शंख बजा
रहा होता था. कोई घूप दे रहा होता था कोई ढोलक और मजीरे के साथ संगत दे रहा होता
था. इस ‘टोटक्या’ को बांधने का कार्य रात
भर जागकर किया जाता था. यह ‘टोटक्या’ रोदों में उगने वाली खीप से मिलकर बनाया जाता था. युवा उत्साही लोग
रात को वह खीप काटकर लाते थे. वयोवृद्ध अनुभवी व समझदार लोग रात भर बैठकर उस
हरी-हरी खीप से लम्बी रस्सी जैसा वह ‘टोटक्या’ बनाते थे.. उस रस्सी के बीच में एक नारियल बांधा जाता था. उस रास्ते
और पुलिया के दोनों तरफ दो नीम के पेडों से उस 40-50 फुट के खीप के रस्से को इस प्रकार से बांधा जाता
था कि ‘टोटक्या’ से बंधा हुआ नारियल रस्से और रोड़ के बीच में होता था. रात को 10 बजे
से होने वाला यह ‘टोटक्या’ बनाने का कार्य सुबह 5 बजे से पहले सम्पन्न करना होता था. सुबह 5 बजे
की आरती और झालर बजने के साथ ही मौहल्ले वालों को पता चल जाता था कि ‘टोटक्या’ बंध गया है और अब सबको उस
के नीचे से गुजरना है. बस हर घर से लोग निकलकर उस ‘टोटक्या’ के नीचे से निकलने लगते थे. पशुओं को ‘टोटक्या’ के नीचे से गुजारकर वह सेरी में भीलवाड़ा जिले की सीमा में चरने के
लिए छोड़ देते थे. और खुद घर से बाहर खाना बनाने की प्रक्रिया में जुट जाते थे. और
इस प्रकार यह पूरा आयोजन सम्पन्न होता था.
वो 1991 की कोई दोपहर थी जब मैं राही मासूम रजा के
साहित्य से मुखातिब हुआ था. एक दिन मुझे अजमेर की पुरानी मंडी और कचहरी रोड़ की सभी
किताबों की दुकानों पर घुमने के बाद ‘सीन 75’ के साथ ‘आधा गाँव’ भी हाथ लगी थी. घर आकर मैं ‘आधा गाँव’ को पूरा पढने के बाद ही सो पाया था या कह सकते हैं कि पूरा पढ़ने के
बाद सो ही नहीं पाया था. तब से लेकर आज तक यह ‘आधा गाँव’ मेरी पूरी जिदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा है. जो तीन उपन्यास(वो दो
कौनसे हैं वह भी बताऊंगा, जरा रूकिये) मेरे द्वारा हर साल बार-बार पढे जाते हैं उनमें ‘आधा गाँव’ का स्थान सबसे पहले आता
है. मैंने आजादी के बाद बदलती हुई राजनीतिक प्रक्रिया में पीछे रह जाते सैय्यद
मुसलमानों की पीड़ा को राही मासूम रजा के आधा गाँव उपन्यास में बखूबी देखा था.
आजादी के बाद जैसे-जैसे समय बदला वैसे-वैसे गंगौली के सैय्यदों की हालत कैसे खस्ता
हाने लगी, यह मैंने आधा गाँव पढकर
जाना था. ठीक वैसे ही बदलते समय के साथ इस गुर्जर मौहल्ले के समृद्ध और सम्पन्न
गुर्जर भी मजदूरी और भुखमरी की हालत में कैसे आ गये थे यह मैं खुद देख रहा था. वे
जातियाँ और लोग जो उन समृद्ध गुर्जर पटेलों के यहाँ बर्तन मांजने का काम करते थे
वह अब उन्हीं पटेलों के बच्चों पर हाथ छोड़ने लग गये थे. जो गुर्जर अंग्रेजों के
समय सबसे आगे थे(आगे क्या थे यह मौहल्ला ही उन्हीं का था)और पूरे मौहल्ले में एक
मात्र पक्के मकान के स्वामी भी वहीं थे. आज हालात यह है कि उस हवेली की मरम्मत तो
दूसरी बात है, उस हवेली की पुताई तक
नहीं करवा पा रहे थे. गुर्जरों के बच्चे पढ़ नहीं रहे थे, पढ़ भी रहे थे तो उच्च
शिक्षा प्राप्त करने बाहर नहीं जा पा रहे थे, यदि बाहर जा भी पा रहे थे तो दीपावली के अवकाश पर
घर आते थे तो फिर पैसों के अभाव के कारण उन किराये के कमरों से अपना सामान वापिस
भी नहीं लेकर आ पा रहे थे. यही कारण था कि आजादी के चालीस साल गुजर जाने के बाद भी
तब तक उस गुर्जर मौहल्ले में किसी गुर्जर के पास कोई सरकारी नौकरी नहीं थी. और आज
पैंतीस साल और गुजर जाने के बाद आज भी नहीं है. सम्पन्नता के उस दौर से गरीबी के
इस दौर तक लाने में भाग्य, विधाता, परिस्थितियों और हालात ने पूरा योगदान दिया था. प्रान्त के जातीय
नेता इनकी हालत सुधारने के लिए आन्दोलन करते भी थे तो भी आती-जाती सरकारें इनके
साथ गुर्जर-गुर्जर खेलने में लगी हुई थी. इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था. इसलिए
यह कोई हैरत की बात नहीं थी कि उस आधा गाँव से मिलते जुलते लगभग सभी किरदार मैंने
इस पूरे मोहल्ले में देखे थे. यहाँ 'फुन्नन चा' भी थे और 'मौलवी बेदार' भी. यहाँ 'सैफुनिया' भी थी और 'झंगटिया बो' भी. यहाँ 'सितारा' भी थी और 'मगफिए' भी. यहाँ मुझे 'तन्नु
उर्फ मेजर तनवीर हसन' भी मिल जाता था और गुर्जर मौहल्ले की 'सईदा' भी. एक प्रकार से ‘आधा गाँव’ इस पूरे मौहल्ले पर काबिज
था.
यहाँ मौहल्ले की कोई लड़की किसी दिन किसी के साथ निकल जाती थी तो उसका
बरसों तक पता ही नहीं चलता था कि वह जिन्दा भी है या नहीं. कोई लड़का ट्रक ड्राइवरी
सीखने के लिए जाता था और ना तो वह वापिस लौटकर आता था और ना ही उसकी लाश तो भी इस
प्रकार की घटना पर मौहल्ले में कोई हंगामा नहीं होता था. पता ही नहीं चलता था कि
हमारी स्कूल के पहले निर्वाचित अध्यक्ष 'किशन लाल गुर्जर' ने अपनी अधेड़ उम्र में
आत्महत्या का रास्ता क्यों चुना. मोहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की अगर जिन्दा भी थी
तो उसकी किस्मत में ट्रक के ड्राईवर से शादी करना और एड्स से मरना लिखा था. इस
मोहल्ले में पता ही नही चलता था कि जासूसी उपन्यास पढ़ते-पढ़ते कब कोई आपके साथ
पढने-खेलने वाला लड़का कम उम्र की बच्चियों और वृद्ध महिलाओं के बलात्कारी और
हत्यारे में तब्दील हो जाता था. बारह-पन्द्रह साल का बच्चा जिस दिन पेट्रोल पम्प
चौराहे से मजदूरी करके रात को नशे में धुत्त होकर अपने बाप को माँ बहन की गालियाँ
देता हुआ उस मौहल्ले में प्रवेश कर जाता था तो हम मान लेते थे कि अब वह जवान हो
गया है. ‘नाथ्या कुम्हार’ को छोरा भी ऐसे ही जवान हुआ था.उस मौहल्ले में हर कोई ऐसे ही जवान
होता था क्योंकि उसी दिन उस जवान हुए युवक को पता चलता था कि उसकी शादी करके
न्यारा(अलग)कर देने के चक्कर में उसके बाप ने दो रूपये सैंकड़े के ब्याज का बड़ा सा
बोझ अपने सिर से उतारकर उसके सिर पर रख दिया है. शादी-ब्याह, नुक्ते, बारहवें, जीवित मौसर, नाते के कर्ज हर युवा को
यहाँ विरासत में मिलते थे. यही विरासत नशे में धुत्त होकर गालियों में बह जाती थी.
वह नशे में होकर इसलिए नहीं रोते थे कि उन्हें पीना अच्छा लगता था बल्कि इसलिए
रोते थे क्योंकि उनको जीना अच्छा लगता था और गरीबी और अभाव इस जीने को दुरूह किये
दे रहा था. इस दुष्चक्र को नहीं तोड़ पाने के कारण वह पीते थे. पीकर गालियाँ
निकालते थे, रोते थे और एक दिन गुमनाम
मौत मर जाते थे. उस दौर में उस मौहल्ले में जो भी बच्चे थे उन्हें अभाव अपने तरीके
से एक ही दिन में कर्जे में लिथड़कर बड़ा बना देते थे. जो गबरू जवान थे उन्हें गरीबी
और दारू बहुत जल्दी ही खोखले बूढ़ों की शक्ल में बदल देती थी. जो बूढ़े थे वह
अंग्रेंजों के जमाने में उनके द्वारा की गई अंग्रेजों की चाकरी करने के किस्से
सुनाते-सुनाते मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे. हर कोई वहाँ अपना अपना नरक भोगने को
अभिशप्त था.
गांव में तो नहीं पर गाँव के पास में ही बनास बहती थी. 1986 के
उस साल से लेकर जब मैंने पढ़ने के लिए वह घर छोड़ा था इस 2020 के
आने तक के 35 सालों में उस बनास में से काफी पानी बह गया है.
इन बीते पैंतीस सालों में जो उस कथानक के मुख्य पात्र थे वह स्मृतियों में रह गये
हैं. हरदेव दाजी, नारायण दाजी, मांगी लाल दाजी, ऊदा दाजी, जगदीश दाजी, कान्हा जी, तो मैंने देखे नहीं थे. जो मैंने देखे थे उनमें से बजरंग दाजी, भूरा दाजी, रामा दाजी, भूरा माली दाजी, नन्दा दाजी, सूरज्या दाजी, छीतर दाजी, गोपाल काका, रामरूप दाजी, मड्या दादा, माधो दादा, श्योजी भाया जैसे कितने
ही वयोवृद्ध शान्त हो गये हैं. रत्तीराम जी, कजोड़ भाया, गोपीलाल, सोहन काका(खन्ना साहब, क्योंकि यह राजेश खन्ना
के बहुत बड़े फैन थे), देबी भाया, मोत्या भाया जैसे कितने ही युवा असमय ही काल के गाल में समा गये हैं.
मौहल्ले के बच्चे विगत से विरक्त युवा की भूमिका में जी रहे हैं. उनको पता ही नहीं
कि उनकी विरासत क्या है और वह किन सपनों के खंडहरो पर अपना घर बसाये हुए हैं.
मनुष्य, मनुष्य इसलिए हैं कि उसके पास स्मृतियाँ होती है. हमारी स्मृतियाँ
में वह सब कुछ होता है जो हमसे छूट जाता है. उन स्मृतियों के पास यदि वापिस लौटकर
आना ही मनुष्य मात्र की सनातन और आदिम इच्छा हो तो वापिस लौटने की लालसा लिए हम
क्या हमारे मनुष्य होने को ही साबित कर रहे होते हैं. हमारा मनुष्यत्व हमारी
स्मृतियों से बंधा होता है. हम उन्हीं स्मृतियों से बंधे रहने के लिए व्याकुल होते
हैं, आतुर होते हैं. हमारी यह
व्याकुलता, आतुरता हमें वापिस वहीं
लौटा ले जाना चाहती है जहाँ से हम निकले होते हैं. आखिरकार हम वापिस लौटना ही
क्यों चाहते हैं ? क्या हमें पीछे छूट गये उस घर के सूने आंगन वापिस बुला रहे होते हैं ? क्या हमारी पुरानी
स्मृतियाँ हमें बारम्बार वापिस लौटने के लिए पुकार रही होती हैं ? क्या उस घर में इन्तजार
करती माँ की गोद हमें अपनी तरफ खींच रही होती है या उसी घर के आंगन में हमारे जन्म
के साथ ही परम्पराओ के वशीभूत होकर गाड दी गई वह नाळ(गर्भनाल,आंवल) हमें बुला रही होती
है. यह हमारी स्मृतियाँ हैं या प्लेसेन्टा के रूप में उस पुराने मकान के आंगन में
गड़ा हुआ माँ और हमारे शरीर का कोई अंश जो हमें हर पल वापिस आने के लिए मजबूर कर
रहा होता है.
मेरे प्रिय कवि गीत चतुर्वेदी जब यह लिखते हैं कि ‘सारे सिकन्दर घर लौटने से
पहले ही मर जाते है’ तो लगता है कि हमारी ही जिन्दगी का फलसफा बयान कर रहे होते हैं. भला
हम साले कौनसे सिकन्दर हुए ! चलो मान भी लें कि हम कहीं के सिकन्दर न थे पर लड़े तो
हम भी थे. जिन्दा रहने के लिए लड़े थे. उस दौर में जिन्दा रहने के लिए जो भी जतन हम
कर सकते थे, हमने किये थे. हमने झूठ
बोले थे, चोरी की थी, वफा की थी या बेवफाई की
थी, जिन्दा रहने की उस
जद्दोजहद में गलत या सही जो भी हमसे हो सकता था शायद वो हमने किया था. तो क्या हम
भी अपनी-अपनी दुनियावी जिन्दगी की जंग जीतने के लिए निकले एक तरह के सिकन्दर ही
हैं जो अपने लिए एक इच्छित जिन्दगी और घर वाली छोटी सी दुनिया जीतने निकले थे. इस
जंग में हमको क्या मिला, क्या नहीं ? हम जीते या हारे यह भी बाद की बात है पर अपनी जिन्दगी की जंग हमने
सिकन्दर की तरह ही लड़ी थी. तो क्या सिकन्दर की तरह हमारा भी वापिस लौटना नहीं हो
पायेगा. पता नहीं अब वापिस उस घर, गली, मौहल्ले, गाँव, कस्बे में लौट भी पायेगें या नहीं. या लौट भी पायेंगे तो इतना पता है
कि वह तो नहीं ही लौट पायेंगें जैसे कि हम वहाँ से निकले थे.
हम नहीं जानते थे कि घर से निकलेंगें तो जिन्दा रहने की जद्दोजहद में शहर
बनते कस्बे हमारा गाँव भी खा जायेंगें. लौटकर वापिस अपने उस घर, गाँव या कस्बे, शहर में चला भी जाऊंगा तो
क्या मुझे वह सब वैसा ही मिलेगा जैसे मैं 35 साल पहले उसे छोड़कर आया था. पढ़ने के लिए जब 1986 में
अजमेर जा रहा था तो बड़ा भाई पिता की तरह साथ था. अब अगर उसी घर में लौटकर जाऊंगा
तो ना पिता को उस घर में पाऊंगा और ना ही बड़े और छोटे भाई को तो वह घर मुझे कैसा
लगेगा ? जिस दिन उस घर से निकले थे तब कहाँ और क्यों नहीं सोचा था कि घर की
तलाश में घर छोड़ कर जाना कोई समझदारी नहीं है ?
जो हमारा बचपन था उसमें हम स्कूल से घर लौटते ही बस्ते को पटक कर भेड़ों के
रेवड़ को चराने में रम जाते थे. हम जिन जंगलों में अपनी भेड़ों को चराते थे क्या
वहाँ भी हाइवे या बाइपास बन चुके होंगे. जिन तालाबों में हम भेड़ों की ऊन काटे जाने
से पहले उनको नहलाने का परिश्रम करते थे क्या वह तालाब अब भी वैसे ही होगें या
उनके पेटे में सरकारी इमारतें बनाने के लिए उनको प्रशासन ने भर दिया होगा. वो
ऊबड़-खाबड़ पगडण्ड़ियाँ या गलियाँ जिनमें मांगी हुई साइकिलों को केंची चलाते हुए हमने
अपने घुटने कई बार फुड़ाये थे क्या कंक्रीट या तारकोल की कितनी ही सतहों के बोझ तले
दब चुकी होंगी. वो कच्चे मकान जिनके गोबर और पीली मिटटी से लिपे पुते आंगन में
हमने कंचे खेले थे क्या अपने आप को ईट पत्थरों की मार से बचा पाये होंगे. क्या पेट्रोल
पम्प पर अब भी वहीं रौनक होगी जो उस समय होती थी या विकास के पथ पर निकले हाइवे ने
उसे रात को आठ बजे ही सूना कर दिया होगा. नेवर बाग की उन तीन इमलियाँ के नीचे क्या
अब भी उतना ही घना अंधेरा रहता होगा कि जहाँ दोपहर की रौशनी में भी जाने से ड़र
लगता था या नेवर बाग के हत्यारों ने उसे सीमेन्ट और कंक्रीट के जंगलों में बदल
दिया होगा. क्या ‘आड़ा-मोड़ा’ की वो दोनों पहाडियाँ अब भी ‘आव’ में अविरल बहते पानी को ऊंचा के तालाब में मिलने के लिए जाते हुए
वैसे ही देखती होगी या ‘आव’ की जगह अब गन्दे नाले ने ले ली होगी. क्या जिस स्कुल में हम आठवीं तक
पढ़े थे वह अब भी हमें वैसा ही मिलेगा कि हम उसे जाकर छू सकें या लोगों और सरकारों
ने उसे रिहायशी कोलोनी में तब्दील कर दिया होगा.
मैं जानता हूँ कि जिनके बीच मेरा बचपन गुजरा वे आज भी वहीं है और उसी
दलिद्दर में जी रहे हैं. आज भी हालात और किस्मत का मारा मेरा कोई अभागा दोस्त वहाँ
गुमनाम मौत मर रहा है तो कोई वैसे ही ट्रक में पत्थर ढो रहा है. कोई आज भी वैसे ही
अखबार बांट रहा है तो कोई खेती या मजदूरी कर रहा है. इन दिनों जब भी उनके बीच जाता
हूँ तो मुझे उनकी हालत पर तो तरस आता ही है पर उससे ज्यादा खुद की हालत पर तरस आता
है और ऐसा लगता है कि बस उस भडभूंजे की भट्टी में भुनने से एक चना बाकी रह गया
है. यह चना उस भट्टी में से अचानक छिटक कर बाहर आ गया था जो उस परिवेश और हादसों
की आग में झुलसने, भुनने और सिकने से बच गया है. यदि विज्ञान की भाषा में कहें तो क्या
यह वही इलेक्ट्रान है जो अपने आर्बिट से उछलकर अचानक से बाहर आ गया है. और अब
वापिस उसी आर्बिट में जाना चाहता है.
गयी दीपावली पर जब गाँव जाना हुआ तो घर जाने से पहले मैं शहर की सबसे
पुरानी और मशहूर गोविन्द हलवाई की दुकान से मिठाई खरीद रहा था. मिठाई तौलते-तौलते
ग्राहकों की भीड़ में अचानक घुस आये भिखारी को भीख मागने पर हलवाई ने दुत्कार कर
भगा दिया था. मैंने भीख मांगते, रिरियाते उस व्यक्ति को देखा, वह भिखारी नहीं था. अपनी
लंगड़ी चाल से दुत्कार सहने के बाद दूर जाता ‘तेज्या गुर्जर’ था. गोविन्द हलवाई के दुकान पर मिठाई खरीदते उन ग्राहको को तो क्या
गोविन्द हलवाई के उस सुपुत्र को भी पता नहीं होगा कि उसने क्या हिमाकत की है. उसे
शुक्र मनाना चाहिए कि यह सब ‘धन्ना गुर्जर’ ने नहीं देखा था. या यह सब देखने के लिए वह जिन्दा नहीं था. वह
तेज्या गुर्जर, धन्ना गुर्जर का छोटा भाई
था. ‘धन्ना गुर्जर’ जो उस गुर्जर मोहल्ले में
एकमात्र उत्साही, उदण्ड़ी, जवान और दिलेर मर्द था. जो अपनी पर आ जाये तो शर्त लगाकर पेट्रोल
पम्प से पूरे गुर्जर मौहल्ले तक दिगम्बर होकर घूम सकता था. जो लड़ने पर आ जाये तो
सामने वाले को लहुलुहान कर देता था. जो मारने पर आ जाये तो सामने वाले को जिन्दा
नहीं छोड़ता था. उस धन्ना गुर्जर का भाई भीख मांग रहा था ! जिनके भाई असमय भगवान के
घर चले जाते हैं क्या उनके पीछे बचे रहने वाले भाई ऐसे ही भीख मांगने को अभिशप्त
होते हैं ? आखिरकार वह क्या दर्द है
जो अच्छे खासे इंसान को जीने की इच्छा खो चुके असहाय इंसान में तब्दील कर देता है.
इस बार पिताजी कि बरसी पर जाना हुआ तो पुराने मकान की भरती नींवों को
निहारते समय मुझे पास में खड़े बाबू लाल गुर्जर ने कहा-'तेरे
फोन नम्बर बता, मुझे सेव करने हैं.’ मैं उस पर चढ़ गया. उस पर चिल्लाया-‘साले, तेरे फोन नम्बर दस साल से मेरे पास सेव हैं, और तू अब मेरे से फोन
नम्बर मांग रहा है, हद करता है यार, तेरे पास मेरे नम्बर सेव ही नहीं है. और तू अब क्यों
मेरे नम्बर ले रहा है.' मैंने मन ही मन सोचा कि या तो ये
बहुत ज्यादा ड़र गया है, या इसको मेरे से कोई काम निकालना है. जवाब में उसने कुछ नहीं कहा, पुराना यार था. गुर्जर
मौहल्ले के पटेलजी का छोटा बेटा था. पहली कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक मेरे साथ
पढ़ा था. हमारी दुनिया एक थी, दोस्ती एक थी, सपने एक थे. साल भर पहले वह बीमार होकर बिस्तर में पड़ा हुआ था. जीजी
ने कहा उसे घर जाकर देखकर आ, उसकी तबीयत खराब है. मैं गया, देखा. वह खून थूंक रहा था. नशे में था. मुझे इतना
पास देखकर रोने लगा और रोते हुए बार-बार कहे जा रहा था कि-‘यार मेरी बेटी पढ़ने में
ठीक है, तू इसका ध्यान रखना, उसे अपने साथ ले जाना.’ मैंने माहौल की भावुकता
को कम करने के मकसद से लगभग डाटते हुए कहा-‘यार ! तू अपनी बेटी मेरे चिपकाने के चक्कर में मर क्यों रहा है. इसका
ध्यान तो मैं वैसे भी रख लूंगा पर तेरे मरने के बाद मैं इसे लेकर जाऊं उससे बेहतर
यह होगा कि तू इसे मेरे पास आगे पढ़ाने के लिए लेकर आये तो मुझे और भी अच्छा लगेगा.’ मैं यह तो नहीं कहता कि
मेरे समझाने का असर था या मेरे कहने का पर उस रात के बाद से उसने शराब को हाथ तक
नहीं लगाया. उसने पीना बन्द कर दिया, जीना शुरू कर दिया. इस दुनिया में कौन किस की बात
मानता है, कौन किस की सुनता है. पर
उसने सुनी और मानी. कोरोना के शुरू होते ही मेरे पास देवली के स्कूल के मित्रों
में से जो पहला फौन गाँव से आया वह उसी का था. तब समझ में आया कि कोई पुराना दोस्त
यदि आपका फोन नम्बर ले रहा हो तो जरूरी नहीं कि वह आप से अपना काम निकलवाने या मदद
लेने के लिए ही फोन नम्बर मांग रहा हो. वह आपकी कुशलक्षेम पूछने के लिए भी नम्बर
मांग सकता है.
पता नहीं कि इधर हालात कब ठीक होंगें. होंगें भी या नहीं होगें. अगर ठीक
होंगें तो पता नहीं कि उस घर, गली, मौहल्ले में लौटकर जाना होगा या नहीं होगा ? यदि लौटकर जाना हुआ भी तो
मैं जहाँ जाऊंगा, वहाँ क्या मिलेगा ? वह जो मैंने देखा था, जिया था, भोगा था या वह जो जीवन की आपाधापी में कहीं खो गया
है. उस भोगे हुए को मैं भला क्यों याद कर रहा हूँ ? क्यों लिख रहा हूँ ? इस समय कौन मेरी बात सुनना चाहेगा, कौन पढ़ना चाहेगा. यह सब
किसे सुनना पसन्द है. किसे पढ़ना पसन्द है. अतीत में, अपनी उन्हीं स्मृतियों के पास मेरे वापिस लौटने की
यह आदिम इच्छा ही शायद मेरा होना है. और मैं अपने मनुष्य और जीवित होने को साबित
करने के लिए यदि जा सकूं तो एक बार वापिस वहीं जाना चाहता हूँ जहाँ से, जिस घर से मैं निकल कर
बाहर आया था. मैं वापिस उन्हीं गलियों, खेतों में अपना बचपन खोजने जाना चाहता हूँ. भले ही
इस बात को कहने के लिए मुझ पर भावुकता का आरोप लग जाये पर में अपने पैतृक घर के
कच्चे आँगन में, जहाँ मेरी नाळ गड़ी है, एक बार फिर से लौटकर जाना चाहता हूँ. अगर मैं
लौटकर जा सका तो ?