बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

यहाँ चुप रहना भी उतना ही निरर्थक लगता है
जितना चुप नहीं रहना
और कुछ कहना
उन चेहरों के सामने अपराध लगता है
जिनके पास हमारी आवाज़ के बदले में हमें लौटाने लायक,
अब कुछ भी नहीं बचा है
तो हमें सोचना पड़ेगा कि,
यह जो जैसा संसार हमने रचा है


उसमें चेहरे की अव्यक्त सुन्दरता पढ़ने के लिए
उस पर तेजाब उँडेलने का व्याकरण कहाँ और क्यों जरूरी है
और,भाडे़ के हत्यारों के उन्मादित आक्रोश
और आपकी निर्दोषता के बीच कितनी कम दूरी है


वे हत्यारे,
शालीनता के जूते पहनकर,
इस शहर के शांत वातावरण की पीठ पर से गुजरते हैं
इन्हीं हादसों से मेरी यादों के अलाव जलते हैं
और उस की रौशनी में मुझे अपना ही शहर पराया लगने लगता है
तब अपने से ही उकता कर
यह सोया हुआ वातावरण जगता है

और मैं चीखता हूँ
तुम सुनो,
लो तुम्हें बख्सता हूँ
मैं अपने अनुभव का आकाश
तुम इसमें से इस तथ्य को चुनो
कि एक ऐसे समय में जब,
जितनी कम संभावनाएं
किसी अनहोनी दुर्घटना से आपके बचने की है
क्या उतनी ही कम,
आपके या मेरे द्वारा कविता रचने की है

इसीलिए इस अनगढ़े समय में
आप अगर,
जीवित और जागृत भाषा के हाथों कुछ रच सकते हैं
तो मुझे सांत्वना मिल सकती है
कि उन हत्यारों के हाथों आप,मरने से बच सकते हैं

इससे पहले
कि उनके हाथों,
कत्ल होने से आप ही बच पायें
आप बाकी तटस्थ लोगों के लिए
कविता की ज़मीन पर बैठकर
यह एकमात्र सच गायें
कि धूमिल इतना कायर था कि उत्तरप्रदेश था
क्यों ?
कैसे ?
मैं तो यह सोचकर परेशां हूँ !! हैरान हूँ !!
मैं तो बस,
इतना संवेदनहीन हूँ ,
जैसे कि राजस्थान हूँ !!

2 टिप्‍पणियां:

  1. दादा की रचनाऐ बहुत खूब हकीकत बया करती है आपकी कलम ऐसे ही चला करती है। राधेश्याम कोटी चित्रकार सगरिया

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    1. राधे भाई, ये और ऐसे कई भाव हम सभी के मन में अक्सर आते थे....आप केनवास पर उतार देते हो और मैं कागज़ पर ......

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