बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

महज़ अफ़वाह है अपनी दुश्मनी और लोगों के कहने से
हर एक बज़्म में , हम दोनों रक़ीब समझे जाते हैं.
बात सिर्फ इतनी सी सच है जिसे यहाँ कोई नहीं कहता
कि कभी हम भी थे आज आप जिसके क़रीब समझे जाते हैं.

हाँ यह हक़ीक़त है, कि, मेरी जान एक दिन उससे वाबस्ता थी
मगर सच तो यह भी है कि यह वाबस्तगी के वादे झूठे थे.
जिसे तुम टूट कर चाहते हो आज अपने तन मन से,
उसी की चाहत में हम भी कभी तन मन से टूटे थे।


नहीं अफ़सोस नहीं कोई रंज मुझे एक उसको खोने का,
अगर कुछ है तो बस इतनी सी मेरे दिल को अज़ीयत है.
कि जिसने सर पर मेरी चादर को न रखा था एक पल,
वही चेहरा, वही सर आज क्यों तुम्हारी मिल्कियत है.


दुश्मनी, तुमसे क्यों, जब कि तुम तो मानूस तक भी नहीं मुझसे,
यह रिश्ता दुश्मनी का तो अपने ही दोस्तों ने उछाला था.
जिन आँखों को पाकर आज तुम्हारी हयात रौशन है,
इन्हीं चिराग़ों से एक दिन अपनी भी ज़िन्दगी में उजाला था.


इसलिए दुश्मन समझ या दोस्त बस इतनी सी गुजारिश है,
कि जो आज तुझ पर फ़िदा है उसे मैंने भी क्या खूब रखा था.
तू भी उन आँखों को हर एक ग़म से दूर ही रखना,
हर एक तकलीफ़ से कभी मैंने जिन्हें महफूज रखा था.

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